________________ किया जा सकता। इस तरह से स्याद्वाद और नय दोनों ही श्रुतप्रमाण हैं। श्रुतज्ञान के भेद प्ररूपित करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि के पहले अध्याय के 6वें सूत्र में कहते हैं कि - इसके स्वार्थ और परार्थ के भेद से दो भेद हैं। इनमें स्वार्थ श्रुतज्ञान ज्ञानात्मक और परार्थ श्रुतज्ञान वचनात्मक है। इसी परार्थ श्रुतज्ञान का भेद नय कहलाता नय श्रुतज्ञानात्मक उपयोग का एक भेद है। उपयोग का अर्थ है - वस्तुस्वरूप को जानने में प्रवृत्त ज्ञानशक्ति जब श्रुतज्ञानात्मक उपयोग वस्तु को परस्पर विरुद्ध पक्षों में से किसी एक पक्ष के द्वारा जानने में प्रवृत्त होता है तब उसे नय कहते हैं और जब दोनों पक्षों के द्वारा जानने का प्रयत्न करता है अथवा धर्म-धर्मी का भेद किये बिना वस्तु को अखण्ड रूप में ग्रहण करता है, तब श्रुतज्ञानात्मक प्रमाण अथवा स्याद्वाद कहलाता है। जैसा कि भट्ट अकलंक स्वामी लिखते हैं कि - उपयोग रूप होने के कारण नय को दृष्टि अथवा नेत्र की उपमा दी गई है, जिससे स्पष्ट है कि नय वस्तु के पक्ष विशेष को जानने का साधन है। इसी सम्बन्ध में आचार्य माइल्ल धवल अपने ग्रन्थ द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र में लिखते हैं कि जीवापुग्गलकालो धम्माधम्मा तहेव आयासं। णियणियसहावजुत्ता दट्ठव्वा णयपमाणणयणेहिं॥ अर्थात् अपने-अपने प्रतिनियत स्वभाव से युक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को नय और प्रमाण रूपी नेत्रों से देखना चाहिये। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि नय प्रमाण है या अप्रमाण? तो इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि - न समुद्रोऽसमुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते। नाऽप्रमाणं प्रमाणं वा प्रमाणांशस्तथा नयः॥ लघीयस्त्रय 32 द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र, 3 नयोपदेश 9 72 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org