________________ करने वाला नय हैं।' नय का स्वरूप वर्णित करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कयं तु दठूण। अत्थं णयंति तच्चतमिदि तदो ते णया भणिया। अर्थात् उच्चारण किए गए अर्थ, पद और उसमें किए गए निक्षेप को देखकर . अर्थात् समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुँचा देते हैं, इसलिए वे नय कहलाते हैं। निरुक्त्या लक्षणं लक्ष्यं तत्सामान्यविशेषतः। नीयते गम्यते येन श्रृतार्थांशो नयो हि सः।। इसी क्रम में मेरे आधारभूत आचार्य देवसेन स्वामी आलापपद्धति के 'नय व्युत्पत्ति' में नय का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं कि - 'प्रमाणेन वस्तु संगृहीतार्थेकांशो नयः। श्रुतविकल्पो वा ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः। नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयति, प्रापयति इति वा नयः।' अर्थात प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने को नय कहते हैं। अर्थात् प्रमाण से वस्तु के सब धर्मों को ग्रहण करके ज्ञाता पुरुष अपने प्रयोजन के अनुसार उनमें किसी एक धर्म की मुख्यता से वस्तु का कथन / करता है वह नय है। श्रुतज्ञान के भेद नय हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा गया है। जो नाना स्वभावों से वस्तु को पृथक् करके एक स्वभाव में स्थापित करता है वह नय है। इसमें आचार्य देवसेन स्वामी ने भी पूर्वाचार्यों का अनुकरण करते हुए नय के स्वरूप को समाहार रूप में प्रस्तुत किया है। समस्त परिभाषाओं को एक ही स्थान पर लाकर आचार्य देवसेन स्वामी ने साररूप में नय के स्वरूप को आलापपद्धति, में उल्लिखित किया है। इसी में आगे लिखते हैं कि - 'तदवयवाः नयाः' अर्थात् प्रमाण के ही अवयव (अंग) अर्थात् भेद नय हैं। अर्थात् जो विषय प्रमाण के द्वारा ग्रहण किया गया है, उसके ही अलग-अलग अंगों को अलग-अलग अपेक्षा से वर्णन करता है वहीं नय है। अतः WN - सामान्यादेशतस्तावदेक एव नयः स्थितः। स्याद्वादप्रविभक्तार्थ विशेषव्यञ्जनात्मकः। वही 17 धवला पु. 1 गा. 3 वही 20 76 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org