________________ स्वभावपर्याय - जो पर्यायें कर्मोपाधि से रहित हैं वे स्वभाव पर्यायें कहलाती हैं।' अगुरुलघुगुण का परिणमन स्वभाव अर्थ पर्याय कहलाती है। ये पर्यायें 12 हैं6 वृद्धिरूप और 6 हानिरूप। 6 वृद्धिरूप - अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि। 6 हानिरूप - अनन्तभागहानि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानि। यह आगमप्रमाण से सिद्ध है कि प्रत्येक द्रव्य में अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद वाला अगुरुलघुगुण स्वीकार किया गया है। जिसका 6 वृद्धि और हानि के द्वारा परिवर्तन होता रहता है, अत: इन धर्मादिक द्रव्यों का उत्पाद-व्यय स्वभाव से होता रहता है। विभावपर्याय - मिथ्यात्व कषाय आदि रूप जीव के परिणामों में कर्मोदय के कारण जो प्रतिसमय हानि या वृद्धि होती रहती है उसे विभाव अर्थ पर्याय कहते हैं। विभाव अर्थ पर्याय 6 प्रकार की होती है 1. मिथ्यात्व 2. कषाय 3. राग 4. द्वेष 5. पुण्य 6. पाप। विभाव पर्यायें जीव और पुद्गल मात्र दो पर्यायों में ही होती हैं इसीलिए जीव और पुद्गलों में अलग-अलग विभाव पर्याय को प्रदर्शित करते हैं। कषायों की षड्स्थानगत हानि वृद्धि होने से विशुद्ध या संक्लेश रूप शुभ, अशुभ लेश्याओं के स्थानों में जीव की विभाव अर्थ पर्यायें जाननी चाहिये, और पुद्गल में द्वि-अणुक आदिक स्कन्धों में वर्णादि से अन्य वर्णादि होने रूप पुद्गल की विभाव अर्थ पर्यायें हैं। अब व्यञ्जन पर्याय के भेदों का कथन करते हैं - अर्थ पर्याय के समान ही इसके भी स्वभाव और विभाव के भेद से दो भेद हैं। स्वभाव व्यञ्जन पर्याय और विभाव व्यञ्जन पर्याय मात्र संसारी जीव और पुद्गल में ही पायी जाती है। स्वभाव, विभाव व्यञ्जन पर्याय के भी दो भेद होते हैं नियमसार गाथा 15 65 For Personal Jain Education International www.jainelibrary.org Private Use Only