________________ य दव्य- जो द्रव्य में समवेत हो अर्थात् कथञ्चित् तादात्म्य रखता हो उसे समवाय दव्य कहते हैं। जैसे- गलकण्ड, काना, कुबड़ा आदि।' अजीव द्रव्य के पुनः पाँच भेद होते हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।' अतः सामान्य से द्रव्य के 6 भेद भी कहे जाते हैं। अब इन छहों भेदों के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आचार्य लिखते हैं कि धम्माधम्मागासा अरुविणो होंति तह य पुण कालो। गइ ठाण कारणाविय उग्गाहण वत्तणा कमसो।। अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पदार्थ अरूपी हैं और इसलिये ये अमूर्त हैं। इनमें से धर्म द्रव्य जीव पुद्गलों की गति में, अधर्म द्रव्य स्थिति में कारण है। आकाश द्रव्य समस्त द्रव्यों को अवकाश देने में और कालद्रव्य सभी द्रव्यों की पर्याय बदलने में कारण है। पुद्गल द्रव्य ही मात्र मूर्तिक अर्थात् रूपी द्रव्य है। शेष द्रव्यों में मूर्तिपना के गुण स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण ये नहीं पाये जाते हैं, इसीलिए धर्म, अधर्म, आकाश और काल अरूपी या अमूर्तिक हैं। जीवद्रव्य भी अमूर्तिक है और कर्मसहित होने की अपेक्षा से मूर्तिक भी है। इनमें धर्म, अधर्म और आकाश ये एक-एक द्रव्य हैं। इसी . . सन्दर्भ में आचार्य उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थसूत्र में दिया है कि धर्म, अधर्म और आकाश ये एक-एक हैं। 1. जीव द्रव्य - इसका विस्तार से वर्णन द्वितीय परिच्छेद में कर चुके हैं। 2. पुद्गल द्रव्य - "स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गला:" यहां आचार्य उमास्वामी पुद्गल द्रव्य का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं कि जो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण वाला है वह पुद्गलद्रव्य कहलाता है। स्पर्श आठ प्रकार का है- हल्का, भारी, रूखा, चिकना, कड़ा, नरम, ठण्डा, गरम। रस पांच प्रकार का है- खट्टा, मीठा, कड़वा, कषायला, चरपरा। गन्ध दो प्रकार की है ध. 1/1, 17 त.सू. 5/1, 39 भा. सं. गा. 305 आ आकाशादेकद्रव्याणि। त. सू. 5/6 52 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org