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वर्ष]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [१५ नामें फिर स्थिर कर दिया और हमारी जो वह चिरसंकल्पित भावना थी उसको यथेष्ट समुत्तेजित कर दिया। साथ ही में, उस संकल्पको कार्यमें परिणत होनेके लिये, जिस प्रकारकी मनःपूत साधन सामग्रीकी अपेक्षा हमारे मनमें गूढ भावसे रहा करती थी, उससे कहीं अधिक ही विशिष्ट सामग्री, सञ्चरित्र, दानशील, विद्यानुरागी श्रीमान् बहादुर सिंहजी सिंघीके उत्साह, औदार्य, सौजन्य और सौहार्द द्वारा प्राप्त होती देखकर, हमने बडे आनन्दसे इस "सिंघीजैन ज्ञानपीठ" के संचालनका भार उठाना स्वीकार किया। । यद्यपि प्रारंभमें हमने इस स्थानका, जैन वायके अध्ययन - अध्यापन करानेकी दृष्टिसे ही स्वीकार किया था, लेकिन हमारे मनस्तल में तो वही पुराना संकल्प रहा हुआ होनेसे, यहांपर स्थिर होते ही वह संकल्प फिर सहसा मूर्तिमान् हो कर हमारे हृदयांगणमें नाचने लगा। और वही पुरानी ऐतिहासिक सामग्री जिसको हमने आज तक मुंजीकी पुंजीकी तरह बड़े यनसे संचित रख कर, बन्दी बना रखी है, हमारे मानस-चक्षुके आगे खडी हो कर, कटाक्षपूर्ण टकटकी लगा कर ताकने लगी। हमारा व्यसनी मन फिर इस कामके लिये पूर्ववत् ही लालायित और उत्सुक हो उठा।
प्रसङ्ग पा कर हमने अपने ये सब विचार ज्ञानपीठके संस्थापक श्रीमान् बहादुरसिंह बाबूसे कह सुनाए और "ज्ञानपीठ' के साथ एक “ग्रन्थमाला" भी स्थापित कर जैन साहित्यके रत्नतुल्य विशिष्ट ग्रन्थोंको, आदर्श रूपसे तैयार करवा कर प्रसिद्धि में लानेका प्रयत्न होना चाहिये- इस बारेमें सहज भावसे प्रेरणा की गई। इन बातोंको सुनते ही सिंधीजीने उसी क्षण, बडे औदार्यके साथ, अपनी सम्पूर्ण सम्मति हमें प्रदान की और ऐसी 'ग्रन्थमाला' के प्रारंभ करनेका और उसके लिये यथोचित व्यव्यय करनेका यथेष्ट उत्साह प्रकट किया। इसके परिणाममें, सिंघीजीके स्वर्गीय पिता साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघीकी पुण्यस्मृति निमित्त 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का प्रादुर्भाव हुआ।" (देखो, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रस्तावना, पृ. ३-४)
शान्तिनिकेतनमें जैन छात्रावास गान्तिनिकेतनमें मेरे पहुंचने पर कलकत्ते आदिसे कुछ जैन विद्यार्थियोंके पत्र आने
"लगे जिनमें शान्ति निकेतनमें रह कर विद्याभ्यास करनेकी सुविधाके निमित्त कोई छोटासा जैन छात्रावास स्थापित करने करानेकी मुझसे अभ्यर्थना की जाने लगी। सिंघीजीके नजदिकके कुछ कुटुंबी जन भी चाहने लगे कि उनके बच्चे शान्तिनिकेतनमें
और मेरे सहवासमें रह कर विद्याभ्यास कर सकें तो बहुत उत्तम हो । प्रसङ्ग पा कर मैंने सिंघीजीसे इस विषय में परामर्श किया तो उन्होंने बडी उत्सुकताके साथ, यदि शान्तिनिकेतनके संचालक गण जगहकी सुविधा कर दें, तो अगामी जुलाई (सन् १९३१)से शान्तिनिकेतनमें एक जैन छात्रावास खोल देनेकी स्वीकृति दे दी। शान्तिनिकेतनमें उन दिनों जगह की बडी तंगी थी। तो भी आश्रमके संचालकोंने तथा स्वयं गुरुदेवने इस विषयमें मुझे अपना बडा उत्साह दिखलाया और स्थान वगैरेह देने में बहुत उदारता बतलाई । बागान बाडीकी दो पूरी कतारें जिनमें २०-२५ विद्यार्थी रह सकते थे मेरे स्वाधीन कर दी। इस तरह जगह वगैरहका मैंने प्रबन्ध कर सिंघी
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