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१०० ] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [ तृतीय करना शुरू किया । कुछ सिक्के, कुछ चित्र आदि चीजें इकट्ठी हुई । कमी उन्हें पिताजीने देखा तो वे भी प्रसन्न हुए और फिर तो कहा कि तुम्हें यदि ऐसा शौख है तो चलो मैं भी एक पुराना भण्डक दिखाता हूँ । उस भण्डकमें से सिंघीजीको पुरानी बहियाँ और एकाध यादी मिली । जिसमें जगत् सेठके खजा - नेकी अनेक चीजें दर्ज थीं। सिंघीजीकी खोज और संग्रहविषयक रसवृत्ति इतनी अधिक प्रदीप्त होती गई कि फिर तो उनका वह पेशा ही बन गया । व्यापार और कारोबारका काम बढ़ता गया। आगे उसका भार उनके कंधोंपर भी आया पर खोज और संग्रहकी वृत्ति घटनेके बजाय और भी बढ़ी। वे जहाँ रहते और जाते, जहाँ कहीं प्रवास करते, वहाँ सर्वत्र उनकी धून कला, पुरातत्त्व, इतिहास आदि विषयोंसे सम्बद्ध नाना प्रकारकी चीजोंको देखने, खरीदने और संग्रह करनेकी ही रहती थी । जिसकी प्रतीतिके लिये दो एक खास प्रसंगोंका उल्लेख करना ठीक होगा ।
कलकत्ते में कोई गृहस्थ रत्नकी मूर्तियाँ लेकर आया है जो मोर्गेज रखना चाहता है; ऐसी जानकारी एक बार बाबूजीको मिली । उधर उस गृहस्थकी बातचीत स्वर्गवासी दरभंगा महाराजासे चल रही थी। सिंघीजीको मालूम होते ही वे उस गृहस्थ के पास होटलमें पहुँचे तो दरभंगा महाराज बाहर निकल रहे थे । महाराजाकी व्याजकी शर्त कुछ सख्त थी । सिंधीजीने मौका देखकर जैसी उस गृहस्थने शर्त चाही तदनुसार स्वीकार करके वहीं एक लाखका चेक दे दिया और उन रत्नमूर्तिओं को ले आये । वह कीमती तो थीं ही पर साथ ही वह ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े महत्त्व की थीं । इसलिये सिंघीजीने कुछ मी आनाकानी विना किये उस गृहस्थकी बात मंजूर कर ली । ये मूर्तियाँ छत्रपति शिवाजी और उनके कुटुम्बकी पूज्य देवताएँ हैं जिन पर उस समयका लगा चन्दनका अंश अब भी मौजूद है ।
ई० १९३२ में सिंघीजी गुजरानवाला जैन गुरुकुल पंजाबमें वार्षिकोत्सवर्मे प्रमुख होकर गये थे । मैं भी साथ था । उन्होंने सुना कि अमुक कसबेमें जो कि लाहोर से काफी दूर है, एक जैन गृहस्थके पास सुंदर जैन मणिमूर्ति है । वह मिल न सके तो आखिरको दर्शन की दृष्टिसे वे बहुत श्रम लेकर वहाँ गये । उस गृहस्थने मूर्ति तो न बेची पर बड़े आदरसे सिंघीजीको मूर्तिका दर्शन कराया। ने आ कर मुझसे उस मूर्तिकी खूब तारीफ करने लगे और कहा कि
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