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१०८] भारतीय विद्या
[ तृतीय चला । उनके मित्र बंगाली डॉक्टर गिरीन्द्रशेखर जो आजकल कलकचा यूनिवर्सिटीमें प्राध्यापक हैं उन्होंने नाडी पकडी थी। पर आखिर तक क्लोरोफोर्म देनेकी जरूरत नहीं हुई । मैंने कहा कि 'क्लोरोफोर्म देनेपर भी मैं तो ऑपरेशनमें चिल्ला पडा था।' उन्होंने कहा कि यदि आपको इस प्रक्रियाका अभ्यास होता तो शायद ऐसा न होता ।' पर मानसिक समत्वके बारेमें जब मैंने पूछा तो उन्होंने कहा कि 'यह साधना उस प्रक्रियासे भी सरलतासे सिद्ध होनेकी नहीं।'
सौष्ठवदृष्टि और कलावृत्ति सिंधीजीकी बैठक हो या उनके बरतनेकी कोई भी चीज हो, उसे देखकर कोई भी समझदार व्यक्ति इतना तो विना जाने रह नहीं सकता कि सिंघीजीकी रुचि और कलावृत्तिमें दूसरोंकी अपेक्षा एक खास प्रकारकी विशेषता है जो दूसरोंमें सुलभ नहीं । उनकी इस वृत्तिका परिचय मुझे आगरामें उनके प्रथम परिचयमें ही मिल गया । बड़े बाबूजीकी इच्छासे मैंने नई दृष्टिसे आवश्यक सूत्रका, जिसे प्रतिक्रमण भी कहते हैं, हिन्दीमें अनुवाद विवेचन आदि किया था । आगरेके सुमिते के अनुसार यथासंभव अच्छे ही ढंगसे छपाई शुरू भी हुई थी। मैंने सिंघीजीको छपे थोडे फर्मोको दिखाकर उनका अभिप्राय पूछा कि 'इसमें कुछ सूचना करनी है। उन्होंने तुरन्त ही कहा कि 'और तो सब ठीक है, पर कागज टाईप इससे भी अच्छे मिले तो और भी अच्छा । जब मैंने कहा कि इसके लिये तो बंबई और कलकत्तेसे टाईप कागज लाने होंगे,
और छपे फर्मे रद भी करने होंगे। उन्होंने उसी क्षण कहा कि 'जो करना पड़े सो करो खर्चका प्रश्न ही नहीं है । पर अच्छेसे अच्छा बनानेका ध्यान रखो।' हमने फिर वैसा ही किया और उनकी सौष्ठव दृष्टि तथा कलावृत्तिकी तृप्तिका भरसक प्रयत्न किया । फलतः वह संस्करण इतना आकर्षक निकला कि आगे उसके ऊपरसे अन्यान्य स्थानोंसे दो संस्करण दूसरे निकले जिनसे उनके प्रकाशकोंने खूब फायदा उठाया । बाबूजीने तो मुफ्त वितरण करने ही के लिये वह आवश्यकसूत्र तैयार कराया था जिसका उस सस्ते जमानेमें भी करीब पांच हजार का बील आगराकी संस्थाको उन्होंने चुकाया । सिंधीजीको चित्र, स्थापत्य आदिका बहुत सक्रिय रस था । वे अपनी नई नई कल्पनाके अनुसार डिझाइन तैयार करवाते थे । एतदर्थ वे अपने पास एक आर्टिस्ट भी रखते थे। भगवान् महावीरके बिहार क्षेत्रका नकशा कल्पसूत्रके वर्णनानुसार उन्होंने स्वयं ही खींच
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