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[वर्ष ३
१३८] भारतीय विद्या
तत्वार्थसूत्रकर्तारं उमाखातिमुनीश्वरम् ।
श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ॥ इसमें उमाखातिको 'श्रुतकेवलिदेशीय' विशेषण दिया गया है और यही विशेषण व्याकरणाचार्य शाकटायनके साथ लगा हुआ मिलता है साथ ही इसी शिलालेखमें शाकटायनकी भी स्तुति की गई है। ___ यापनीय सम्प्रदायका अब केवल नाम ही रह गया है, सम्प्रदायके रूपमें उसका अस्तित्व नहीं है । हाँ, उसका थोड़ा-सा साहित्य अवश्य रह गया है जो मुश्किलसे पहिचाना जाता है और जिसपर वर्तमानमें दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायोंका अधिकार है । किसी ग्रन्थपर एकका और किसीपर दूसरेका । उदाहरणके लिए शाकटायन व्याकरण विना किसी सन्देहके यापनीय सम्प्रदायका. है जिसपर कई दिगम्बर विद्वानोंने टीकायें लिखकर अपना बना लिया है और शाकटायन आचार्यका ही लिखा हुआ 'स्त्रीमुक्ति-केवलिभुक्ति प्रकरण' श्वेताम्बर सम्प्रदायमें खप गया है। इसी तरह शिवार्यकी भगवती आराधना और उसकी अपराजितसूरिकृत विजयोदया टीका भी यापनीयोंकी है, परन्तु इनपर इस समय दिगम्बरोंका अधिकार है और पं० आशाधर और अमितगति जैसे दिगम्बर विद्वानोंकी मूलाराधनापर कई टीकायें भी हैं।
ऐसी दशामें यदि उमास्वाति यापनीय हों और उनके सूत्र-पाठ और भाष्यको दोनों सम्प्रदायोंने अपना अपना बना लिया हो तो क्या आश्चर्य है ?
तत्त्वार्थ-भाष्यकी प्रशस्तिके दो आचार्य - घोषनन्दि और शिवश्री-मी उमाखातिके यापनीय होनेका संकेत देते हैं । चन्द्रनन्दि, नागनन्दि, कुमारनन्दि आदि नन्द्यन्त नाम यापनीय-परम्परामें अधिक मिलते हैं, बल्कि यापनीयोंका 'नन्दि संघ' नामका एक संघ भी था जब कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस तरहके नामोंका प्रायः अभाव है । इसी तरह उमाखातिके प्रगुरु 'शिवश्री' भी
आश्चर्य नहीं जो भगवती आराधनाके कर्ता 'आर्य शिव' ही हों। 'श्री' और . 'आर्य' नामांश नहीं किन्तु सम्मानसूचक शब्द जान पड़ते हैं । वास्तविक नाम 'शिव' है, जो छन्दके वजन को ठीक रखनेके लिए भाष्यमें 'शिवश्री' और
१-- देखो 'जैन साहित्य और इतिहास में शाकटायन और उनका शब्दानुशासन' शीर्षक लेख ।
२-देखो, वही पृ० २३ - ४० । ३-देखो, वही पृ० ५३ - ५४ ।
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