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अंक १] उमाखातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय [१४७ यापनीयोंसे साक्षात् सम्बन्ध तो रहा नहीं होगा, केवल उनके साहित्यसे परिचय होगा परन्तु उस साहित्यकी सैद्धान्तिक दृष्टि से श्वेताम्बरसम्प्रदायके साथ इतनी अधिक समानता है और इतनी कम भिन्नता है कि वह सहसा समझमें नहीं आ सकती। इसलिए उक्त टीकाकारोंने भाष्यकारको अपने ही सम्प्रदायका उच्चैनागरशाखाका वाचक समझ लिया होगा। परन्तु चूंकि सिद्धसेनगणि कट्टर आगमिक थे, इसलिए उन्हें भाष्यमें जहाँ कहीं आगम-विरोध दिखलाई दिया है वहाँ वे उसे स्पष्टरूपसे प्रकट करनेसे भी नहीं चूके हैं, परन्तु इसके लिए उन्होंने सूत्रपाठ या भाष्यमें कोई हस्तक्षेप नहीं किया है। “उमास्वाति वाचकमुख्य हैं, वाचक तो पूर्वोके ज्ञाता होते हैं, उन्होंने ऐसा आगमविरोधी कैसे लिख दिया, यहाँ अवश्य ही किसी दुर्विदग्धने भाष्यको नष्ट कर दिया है"। उनके इस तरहके वाक्योंसे प्रतीत होता है कि वे भाष्यकारको अपने ही सम्प्रदायका समझते थे । 'वाचक' पदवी भी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें पहले प्रचलित थी ।
परन्तु आचार्य पूज्यपाद यापनीय सम्प्रदायसे अवश्य परिचित रहे होंगे। क्योंकि दक्षिण और कर्नाटकमें उनसे पहले, चौथी पाँचवीं सदीसे लेकर उनसे बहुत बाद पन्द्रहवीं सदी तक यह सम्प्रदाय जीवित रहा है। कदम्बवंशी राजाओंके दानपत्रों में, जो पाँचवीं शताब्दिके अनुमान किये गये हैं, यापनीयोंको जमीन दान की गई है। उन्हीं के एक और दानपत्रसे मालूम होता है कि उस समय दिगम्बर तथा यापनीय पास पास भी रहते थे और उन्हें एक साथ एक प्रामके हिस्से दान किये गये हैं। यापनीयोंकी 'भगवती आराधना' पूज्यपादके
१- कागवाड़ेके जैनमन्दिरके भौहिरेमें श० सं० १३१६ (वि० सं० १४५१) का यापनीयसंघके धर्मकीर्ति और नागचन्द्रका समाधि-लेख है । इनके गुरु नेमिचन्द्रको तुलुवराज्यका स्थापक बतलाया है।-(बाम्बे यूनीवर्सिटी जर्नल, मई १९३३का ‘यापनीय संघ' नामक लेख)
२-देखो, रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे ब्रांच जर्नल नं० ३४, जिल्द १२ और जैनहितैषी भाग १४, अंक ७-८। ये दानपत्र करजघी (धारवाड़)में मिले थे । कदम्बवंशके श्रीमृगेशवर्माका एक और दानपत्र इंडियन ए. जि. ६, पृ० २५ - २६ में छपा है जिसमें कुमारदत्त आदि यापनीय मुनियोंको ग्राम-दान किया गया है। .. ३- देखो 'अनेकान्त' भाग ७ अंक १-२में मेरा लिखा हुआ 'कूर्चकोंका सम्प्रदाय ।' और इंडियन ए० जिल्द ६, पृ० २४-२५
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