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१७६ ] भारतीय विद्या
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माणस पाहि माछलां साचो नेह सुजाण । जो जव कीजे जुजुया तव ते छंडे प्राण ॥ वाहलां तणे वियोगि जु दुख ही डि होई । ते मन जाणे आपणुं अवर न जाणे कोई ॥ कोइल सरिखी स्त्री नही जस मन इसिउ विबेक अंत्र विद्दुणी अवरसिउं बोल न बोलइ एक ॥ देह लेई अम्हे जाइसिउ जीविय तुज्झ सरीर । सीदातुं मम मुंजे सीचे नयणह नीर ॥ मोरुं मन तुझसिउं रमि नही अनेरइ ठाहि । तुझ वियोगि जीवि तो जीवुं स्यां पाहि ॥ दीहाडा जावे घणा मुझ मन एक न होइ । जे तुझ विण दिन नीगनुं लेखे न लागइ सोइ || मन जाणे मन वत्ती कहि आगलि न कहाए । संभारी सवि बोलडा हीयडुं दुःख भराए ॥ सज्जण तणां संदेसडा गमतां हुई अपार । जिम जिम वली वली पूछिई तिम तिम हर्ष अपार ॥ कहिसिउं कीजे गोठड़ी कहिसिउं कीजे रंग । तुझ विण सहुइ वीसरे उं दुख दाझे अंग ॥ ते ही किम वीसरे जेहना गुण नवि पार । माहरि ही डि कोइ नवि तुझ टाली संसार ॥ बोलेवा सवि बोलडा फेडेवा मन भ्रांति | एक वेरीने लहा जो मिलसे एकांत ॥ ताड समाण सज्जणे काउं कीजे तेण । फल ऊंचा छाया नही माहरि पासठिएण ॥ हा आमण दुम रीइं ऊभो कांई । जेह सरीखी गोठडी तेहजि चाले कांइ ॥ सज्जन माणस देखि करी दुख जि वीसर जाइ । हीयडुं विहेसि कमल जिम मन पंजरे न माइ ॥ तिणि देसडे न जाईइ जिहां आपणु नहीं कोई | सेरी सेरी भमंत तां सुध नवि पुच्छर कोई || संदेसो किम पाठवुं जो तुं वसि विदेस । atest भीतर तुं वसि संदेसो किम रेस ||
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