Book Title: Bhartiya Vidya Part 03
Author(s): Jinvijay
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 332
________________ १७८] भारतीय विद्या [वर्ष ३ बेत्रण पेढी अगाउ थई गयेला भद्रेश्वरना कहा वली नामना ग्रंथमाथी प्रमाण मळे छे. तेथी महावीरनु निर्वाण इ. स. पू. ४७७मां थयुं एम चोक्कस कही शकाय. २. निगण्ठ नात्तपुत्त बुद्धनी अगाउ थोडा ज समय पहेलां निर्वाण पाम्या, आवी हकीकत बौद्ध आगम ग्रंथोमां व्रण जुदे जुदे स्थळे, पण एक ज रूपमा, मळी आवे छे. बुद्धना जीवननां छेल्लां वर्षोमां-जे वखते ते पोते पावाथी कुशीनारा (तेमना निर्वाणस्थान) तरफ परिभ्रमण करता करतां मांदा पड्या हता ते वखते-देशमा जे ऐतिहासिक बनावो बनी रह्या हता तेनो उल्लेख आ व्रणे स्थळोमां करवामां आव्यो छे. अहीं ए उल्लिखित भागनो अनुवाद अने फूटनोटमा मूळ उतारूं छु. __"ते समये निगण्ठ नाटपुत्त पावामां तरतमा ज (थोडा ज समय अगाउ) मरण पाम्या हता. एमना मरणथी निगण्ठोमां पक्षो पडी गया हता. पक्षापक्षी, कलह अने तकरार प्रवेश्यां हतां. विवादग्रस्त निगण्ठो परस्पर मोढानी बाचाबाची करवा लाग्या." आ पछी आवतां वाक्योमानां जेने में कौंसमा आप्यो छे ए ब्रह्म जाल सुत्त १८माथी लेवामां आव्यां छे. ए वाक्योमा धार्मिक अने तात्त्विक वादविवाद विषे चर्चा छे अने ए वाक्यो मूळ आ स्थाने न होवां जोईए, कारण के एथी पूर्वापर संबंधमां खामी आवे छे. मूळ ग्रंथ हवे आगळ आ प्रमाणे चाले छ: “मने लागे छे के निगण्ठ जतिओमां एक खून (कदाच मारामारीने लीधे) थयु, अने निगण्ठ नाटपुत्तना श्रावको, गृहस्थो, श्वेताम्बरोने आथी निगण्ठ नाटपुत्तो प्रत्ये कंटाळो, विराग अने शत्रुभाव उत्पन्न थयां. खोटीरीते समजाववामां आवेला धर्म अने विनयनी आ दशा थाय; जे खोटीरीते समजवामां आव्या होय, जे मुक्ति न अपावे, शान्ति न अपावे; जे असम्यक्संबुद्धथी समजाववामां आव्या छे अने जेनो स्तूप भागी गयो छ (अने) जे कोई पण प्रकारनो आशरो आपी शकता नथी." ___ अहीं ए संपूर्ण स्पष्टताथी जणाववामां आव्युं छे के नि. ना. पावामां बुद्ध पहेलो थोडा ज समय अगाउ निर्वाण पाम्या हता. अर्थात् -जेम केटलाक माने छे' तेम १. 'एवं च महावीरमुत्तिसमयाओ पंचावणवरिससये पुच्छण्णे (वांचो 'वुच्छिण्णे') नन्दवंसे चन्दगुत्तो राया जाओ'त्ति (मात्र एक ज उपलब्ध थती प्रति उपरथी). ___ + तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो पावायं अधुना कालकतो होति । तस्स कालकिरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अज्ञमनं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति । [ 'न स्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि ? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो; सहितं मे, असहितं ते पुरे वचनीयं पच्छा अवच, पच्छा वचनीयं पुरे अवच । अविचिण्णं ते विपरावत्तं । आरोपितो ते वादो, निग्गहितोसि। चर वादप्प. मोक्खाय निब्बेठेहि वा स चे पहोसी'ति । ] वहो येव खो मझे निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु वत्तति; ये पि निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका गिही ओदातवसना, ते पि निगण्ठेसु नाटपुत्तियेसु निब्बिण्णरूपा विरत्तरूपा पतिवाणरूपा यथा 'तं दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानिके अनुपसमसंवत्तनिके असम्मासंबुद्धपवेदिते भिन्नथूपे अप्पटिसरणे' । २. ओल्डनबर्ग, ZDAG ३४, पान ७४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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