Book Title: Bhartiya Vidya Part 03
Author(s): Jinvijay
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 378
________________ लल्लभाटकृत सिद्धराय जेसिंघदे कवित्त * आ नीचे आपेलां प्राचीन भाषाकवित्त, ३००-४०० वर्ष जूना लखेला एक गुटकामां मळी आव्यां छे. चौलुक्य चक्रवर्ती महाराज सिद्धराज मोटो विद्याप्रेमी अने विद्वानोनो पूजक हतो. एनो दरबार, कवि चक्रवर्ती श्रीपाल आदि घणा महान् कवियोथी भूषित हतो. कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य जेवा सर्वविद्यापारंगत महान् जैनाचार्यो तथा बीजा पण तेवा अनेक समर्थ प्रतिभाशाली जैन यतियोनी विद्वत्ताथी एनी राजसभा सदैव गुंजायमान रहेती; तेमज महापण्डित आलिग, राजपुरोहित आमिग, महामात्य गागिल जेवा ब्राह्मण, अने अन्य चारण भाटोनी प्रखर कवित्वध्वनिथी पण एनी विद्वत्परिषत् अहोनिश काव्यामृतना रसाखादमां मस्त रहेती. प्रबन्धचिन्तामणि ने पुरातन प्रबन्धसंग्रह जेवा ग्रंथोमां सिद्धराजना केटलाक प्रसिद्ध राजकवियो अने सभापण्डितोनां नामो; तथा संस्कृत, प्राकृत अने अपभ्रंशमां तेमणे रचेलां सिद्धराजना प्रशंसात्मक स्तुतिपद्यो प्रसंगोपात्त मळी आवे छे. सिद्धराज विषेनुं आवुं स्तुतिमय साहित्य घणुं विशाल होवुं जोइए, परंतु ते समग्र उपलब्ध नथी. अहिं मुद्रित करवामां आवतां ९ पद्यो एवा ज साहित्यभंडारना खोबाएला ने वेराएला मणका जेवा छे. एना कर्ता तरीके लल्लभट्टनुं नाम आप्युं छे. जो के प्रबन्धोमां नुं नाम क्यांय मळतुं नथी परंतु ए माटे शंकानुं कारण नथी. बीजा पण आम, गद्द, सागरचन्द्र विगेरे घणा कवियोना नामो प्रबन्धोमां मळतां नथी, छतां तेमनी कृतियोना अवशेषो रूपे केटलांक छूटां छूटां पद्यमुक्तको जूनी पोथियोमां मळी आवे छे. नीचे आपेलां कवित्तोनी भाषामां लहियाओना हाथे कालक्रमे केटलोक फेरफार थई गयो छे छतां तेना मूळनी प्राचीनता विषे सन्देह करवा जेवुं नथी लागतुं. भाटो, चारणो, कवियो कोई विशेष अवसर के विशेष वस्तुने लक्षीने राजाओनी स्तुति गावानो प्रसंग मेळवी ले छे अने तेने अनुरूप वस्तुवर्णन करी पोतानी कवित्वशक्तिनो परिचय आपवानो प्रयास करे छे. राजाओ कविनी कविताथी अने पोतानी स्तुतिथी प्रसन्न थईने कविने यथायोग्य पारितोषिक आपे छे. आ जातनां स्तुतिकवित्तो मुक्तको जेवा एकेक - बब्बेनी संख्यामां छूटां ज होय छे अने ते सुभाषितोना संग्रह जेवा प्रकीर्ण पुस्तकोमां, विविध विषयना सुभाषितो भेगां, लखेलां मळी आवे छे. आपणा प्राचीन भाषासाहित्यना अभ्यासनी दृष्टिए आ कति घणां उपयोगी अने रसदायक होय छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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