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अंक १]
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणनो समय [ १९३
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शकायुं के ग्रंथारंभ लिपिकारे मात्र ९ आवा चिह्नथी ॐकारनो निर्देश करीने ज 'bruarणपणामो' ए आदिवाक्यथी ग्रंथना लखाणनो प्रारंभ कर्यो हतो. ग्रंथनी ५-७० पंक्तिओ वांचतां जणायुं के मूळनी भाषानुं खरूप पण, मुद्रित थली वाचना करतां, केटलेक ठेकाणे वधारे प्राचीनरूपवालुं छे । प्रारंभनां बे - त्रण पानाओ फेरव्या पछी में बहु ज उत्सुकता साथे अन्तनुं पानुं जोयुं अने अन्ते लिपिकारनो नाम के समय निर्देशादि सूचवतो कोई उल्लेख छे के केम ते जोवा प्रयत्न कर्यो । ए अन्तिम पत्रनी छेल्ली पूंठी वधारे घसाई गएली होवाथी अक्षरो खूब झांखा पडी गया छे अने पानानी आजुबाजुनी कोरो पण के - लीक खरी पडेली छे । छतां अक्षरो स्पष्ट यांची शकाय तेवी स्थितिमां तो छे ज । प्रथम दर्शने मने अन्त भागमा लेखकनी समयादि निर्देशक तेवी कोई पंक्ति न जणाई । अन्तिम पंक्तिनुं छेल्लं वाक्य आ प्रमाणे दृष्टिगोचर थयुं - गाथा चत्तारि सहस्साणि तिण्णि सताणि ॥ ( अर्थात् - ४ हजार ३०० गाथानो संग्रह) पण एज पंक्तिमां आ वाक्यना पहेलांना शब्दोमां मने " वलभीणगरीए इमं " आ वाक्य दृष्टिगोचर थयुं अने ते जोतां ज मने एक अद्भुत संवेदन थयुं । विशेषावश्यक भाष्यना अन्ते वलभी नगरीनो निर्देश ! शुं ए कोई साचा शब्दो हुं जोई रह्यो छु के कोई दृष्टिभ्रम थई रह्यो छे । हुं वधारे स्वस्थ थईने उपरनी पंक्तिओ वांचवा लाग्यो । विशेषावश्यक भाष्यनी जे अन्तिम गाथा, मुद्रित तेमज अन्यत्र उपलब्ध थती जूनी हस्तलिखित प्रतियोमां मळी आवे छे. तेथी हुं परिचित हतो एटले मने ए गाथा पकडतां कशी वार न लागी । परंतु ए सुज्ञात गाथा पछी नीचे आपेली बे अदृष्टपूर्व अने अज्ञातपूर्व एवी जे गाथाओ वांचवामां आवी तेथी मने ते क्षणे जे अद्भुत आनन्द थयो ते तद्दन अकथ्य हतो । मने तत्क्षणे थयुं के आटलो श्रम अने खर्च वेठीने जे हुं आ जेसलमेरो भंडार जोवा आव्यो हुं ते आजे मात्र आ बे गाथाओ मळवाथी ज संपूर्ण सफळ थई गयो छे; अने हवे जो बीजं कशुं पण जोवा, जाणवा के उतारवा जेवुं नवं साहित्य आ भंडारमां मने न मळे तो पण, हुं पूर्ण तुष्ट थईने अहिंथी जई सकी । ए गाथाओ ते आ प्रमाणे छे
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पंच सता इगतीसा सगणिवकालस्स वट्टमाणस्स । तो चेतपुण्णिमाए बुधदिण सातिंमि णक्खत्ते ॥ रजेणु पालणपरे सी [लाइ] चम्मि णरवरिन्दम । वलभीणगरीए इमं महवि - मि जिणभवणे |
३.१.२५.
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