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१४८ ] भारतीय विद्या
[ वर्ष ३
पहले की और उसकी विजयोदया टीका बादकी लिखी हुई है । शाकटायन व्याकरण और स्त्रीमुक्ति - केवलिभुक्तिप्रकरण अमोघवर्ष प्रथम के समय में विक्रमकी नवीं शताब्दिके प्रारंभके हैं । इस समय के और इससे पेहलेके और भी कई दान-पत्र मिले हैं, जिनमें यापनीयोंको ग्राम या भूमि दान की गई है ।
गरज यह कि पूज्यपाद के समय में यह एक सजीव सम्प्रदाय था । इसलिए उन्हें उनका और उनके साहित्यका साक्षात् परिचय न रहा हो यह नहीं कहा जा सकता ।
सूत्रपाठका संशोधित संस्करण
उस समय तत्त्वार्थसूत्र और भाष्यकी कर्नाटकके यापनीयोंमें अवश्य प्रसिद्धिं रही होगी और उसका पठन-पाठन भी होता होगा । उसे देखकर आचार्य पूज्यपाद के हृदय में यह भावना उठना स्वाभाविक है कि इस तरहका सुन्दर ग्रन्थ हमारे सम्प्रदाय में भी होता तो कितना अच्छा होता । पाणिनि व्याकरणको पढ़कर जिस तरह उन्होंने जैनसाहित्य में एक व्याकरण-ग्रन्थकी कमी महसूस की और उसकी पूर्ति उसीके अनुकरणपर 'जैनेन्द्र' की रचना करके की, उसी तरह यदि यापनीयोंके तत्त्वार्थसूत्र और भाष्यकी कमीकी पूर्ति उन्होंने सर्वार्थसिद्धि टीका लिखकर की हो, तो कोई आश्चर्य नहीं ।
ताम्राचार्योंके समान भाष्य की टीका तो वे कर नहीं सकते थे क्योंकि उसमें सैकड़ों स्थल ऐसे हैं जो उनके सिद्धान्तोंसे विरुद्ध जाते हैं और किसी तरह अनुकूल नहीं बनाये जा सकते । इसलिए एक स्वतंत्र टीका लिखनेसे ही उनकी इच्छा की पूर्ति हो सकती थी ।
सर्वार्थसिद्धिका सूत्र- पाठ भी हमारी समझमें उमाखातिके सूत्र - पाठको थोड़ा-सा संशोधन परिवर्तन करके तैयार किया गया है - केवल उतने ही सूत्रोंमें फर्क
१ - देखो, पृथ्वीकोंगणि महाराजका श्रीपुर ( धारवाड़ ) के लोकतिलक जैनमन्दिरको दिया हुआ श० सं० ६९८ का दानपत्र ( इंडियन एण्टिक्वेरी २ - १५६ - ५९ ) और द्वि प्रभूतवर्षका मान्यपुर (मैसूर) के शिलाग्राम जिनालयको दिया हुआ श० सं० ७३५का दानपत्र । ( - इं० ए० जिल्द १२ पृ० १३ - १६ )
५ - देखो, सत्याश्रयवल्लभका श० सं० ४११ का यापनीय काकोपलाम्नायके जिननन्दिमुनिको 'त्रिभुवनतिलक' मन्दिर के लिए दिया हुआ दानपत्र ( ई०ए० जिल्द
७, पृ०२०९) ।
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