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अंक १]
उमास्वातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय [ १५१
उक्त दो पाठान्तरों का भी उल्लेख पूज्यपाद स्वामी कर सकते हैं । सिद्धसेनगणिने अपनी भाष्यवृत्तिमें इस तरहके अनेक पाठ-भेदोंकी चर्चा की है। इसके सिवाय भाष्यकी प्रतिलिपियों पर से भी इन साधारण पाठान्तरोंका जन्म हो सकता है । अतएव केवल उक्त पाठान्तरोंके कारण आचार्य पूज्यपादद्वारा संशोधित पाठके तैयार होनेकी संभावनाका विरोध नहीं किया जा सकता ।
फिर भी यदि यही मान लिया जाय कि पूज्यपादको यह सूत्रपाठ ज्योंका त्यों मिला था, स्वयं उन्होंने इसका संस्कार नहीं किया, और यदि यह भी निश्चित हो जाय कि सिद्धसेनने जिस यापनीय-वृत्तिकी कारिकायें 'अपरस्त्वाह' कहकर उद्धृत की हैं, वह सर्वार्थसिद्धिसे पहले की है, बादकी नहीं, तो भी हमारें निर्णय में कोई बाधा नहीं आयगी । इतना ही और कहना होगा कि इसे स्वयं उन्होंने नहीं किन्तु उनके पूर्ववर्ती किसी दूसरे दिगम्बराचार्यने संशोधित किया होगा और यह वाचक उमास्वातिके मूल सूत्र - पाठका ही दिगम्बर संस्करण है
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१ - केचिदभिदधते - नास्ति सूत्रकारस्योत्तमपुरुषग्रहणमिति । कथम् । ये किला चरम - देहास्ते नियमत एवोत्तमा भवन्ति । उत्तमास्तु चरमदेहत्वेन भाज्या वासुदेवादय इति । तस्मादनार्थमुत्तमपुरुषग्रहणमिति । अ० २-५३ ।
२ - रायचन्द्रशास्त्रमाला द्वारा प्रकाशित और ऋषभदेव के० सं० द्वारा प्रकाशित भाष्यपाठमें छपा है – “अनिश्रितमवगृह्णाति । निश्रितमवगृह्णाति ।" और देवचन्द लालभाई के संस्करणमें छपा है- “निश्रितमवगृह्णाति । अनिश्रितमवगृह्णाति ।” भिन्न भिन्न पोथियों में इन दोनों पाठों की उपस्थितिमें कहा जा सकता है कि "अपरेषां क्षिप्रनिःसृत इति पाठः ।
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