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१४४ ] भारतीय विद्या
[वर्ष ३ और बढ़ गये हैं। चूँकि दिगम्बर सम्प्रदायमें कल्प १६ माने जाते हैं, और तदनुसार ही आगेके सूत्रको बढ़ाकर उनका नाम निर्देश भी कर दिया गया है, इस लिए पहले सूत्रमें भी 'द्वादश' के स्थानमें 'षोडश' पद होना चाहिए था, अर्थात् सूत्रका रूप 'दशाष्टपंचषोडशविकल्पाः कल्पोपन्नपर्यन्ताः' होना ठीक होता । सो नहीं है और यह खटकनेवाली बात है।
३- नवें अध्यायके 'पुलाकबकुश' और 'संयमश्रुत' आदि सूत्रोंमें जिन पाँच तरहके निर्ग्रन्थोंका वर्णन है, उनकी चर्चा दिगम्बर सम्प्रदायके किसी भी प्राचीन ग्रन्थमें - तत्त्वार्थ टीकाओंके सिवाय - नहीं दिखलाई देती । इनमेंसे पहलेके तीन निर्ग्रन्थों- पुलाक बकुश और कुशील मुनियों - का दिगम्बर मुनियोंकी चर्याके साथ कोई मेल नहीं बैठता । इनके अन्वर्थक नाम, और भाष्यमें जो इनके खरूप बतलाये हैं वे, इनकी चर्याको काफी शिथिल प्रकट करते हैं । सर्वार्थसिद्धिकारने इनके खरूपको काफी सँभालनेकी कोशिश की है, परन्तु दूसरे टीकाकार श्रुतसागरसूरिने 'संयमश्रुत' आदि सूत्रकी व्याख्या करते हुए यह स्वीकार किया है कि असमर्थमुनि शीतकालादिमें वस्त्रादि भी ग्रहण कर सकते हैं और इसे कुशीलमुनिकी अपेक्षासे भगवती आराधनाके अनुकूल भी बतलाया है। इस तरह उन्होंने एक तरहसे यापनीयों का ही मत मान लिया है जो अप वादरूपसे मुनियोंको वस्त्रग्रहणकी व्यवस्था देता है। कहनेका अभिप्राय यह कि ये कुशीलादि मुनि यापनीय सम्प्रदायके अनुसार ही निर्ग्रन्थ कहला सकते हैं और सूत्रकार यापनीय हैं।
४- तत्त्वार्थके दो सूत्रों (अ० ७, सू० २१-२२) में जो गृहस्थोंके लिए सात उत्तरव्रत या शील और आठवीं मारणान्तिकी सल्लेखना सेवनीय बतलाई है, सो भी दिगम्बरसम्प्रदायकी दृष्टिसे खटकनेवाली है। दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग ये सात उत्तरव्रत हैं । भाष्यमें इनको शील तो कहा है परन्तु गुणवत
१-पुलाको निःसार इति प्ररूढं लोके । शबलपर्यायवाची बकुशशब्दः। सातिचारस्वाञ्चरणपटं शबलयति । अनियमितेन्द्रियाः कुशीलाः ।
२-लिङ्गं द्विविधं द्रव्यभावलिङ्गभेदात् । तत्र भावलिङ्गिनः पञ्च प्रकारा अपि निर्ग्रन्था भवन्ति । द्रव्यलिङ्गिनः असमर्था महर्षयः शीतकालादो कम्बलादिकं गृहीत्वा न प्रक्षालयन्ते न सीव्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति अपरकाले परिहरन्तीति भगवती आराधना प्रोक्ताभिप्रायेण कुशीलापेक्षया वक्तव्यम् ।
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