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अंक १] उमास्वातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय [१३७
विनयविजय गणिने अपने लोकप्रकाश (वि० सं० १७०८ )में उमाखातिको ग्यारहवाँ युगप्रधान बतलाया है जो जिनभद्रके बाद और पुष्यमित्रके पहले हुए।
रविवर्द्धन गणिने (वि० सं० १७३९) पट्टावली सारोद्धारमें उमाखातिको युगप्रधान कहकर उनका समय वीर नि० सं० ११९० लिखा है। उनके बाद वे जिनभद्रको बतलाते हैं जब कि धर्मघोषसूरि उमाखातिको जिनभद्रके बाद रखते हैं। ___ धर्मसागरने तो अपनी त० पट्टावली (सटीक)में दो उमास्वाति खड़े कर दिये हैं, एक तो वि० सं० ७२०में रविप्रभके बाद होनेवाले जिनका जिकर ऊपर हो चुका है और दूसरे आर्यमहागिरिके बहुल और बलिस्सह नामक दो शिष्योंमेंसे बलिस्सहके शिष्य, जिनका समय वीर नि० ३७६से कुछ पहले पड़ता है और उन्हें ही तत्त्वार्थादिका का अनुमान कर लिया है।
नन्दिसूत्र-पट्टावलीकी २६ वीं गाथामें 'हारियगुत्तं साइं च बन्दे' (हारीतगोत्रं स्वातिं च वन्दे) पद है। चूंकि उमा-खाति नामका उत्तरार्ध 'स्वाति' है, इसलिए धर्मसागरजीने 'स्वाति'को ही उमा-खाति समझ लिया और यह सोचनेका कष्ट नहीं उठाया कि तत्त्वार्थकर्ता उमास्वातिका गोत्र तो कौभीषणि है और खातिका हारीत । इसके सिवाय दोनों के गुरु भी दूसरे दूसरे हैं।
गरज यह कि श्वेताम्बर सम्प्रदायके लेखक भी उमाखातिकी परम्परा और समय आदिके सम्बन्धमें अँधेरेमें थे। उन्होंने भी बहुत पीछे उन्हें अपनी परम्परामें कहीं न कहीं बिठानेका प्रयत्न किया है और उसमें वे सफल नहीं हुए हैं। ___ हमारी समझमें तत्त्वार्थ-सूत्र और भाष्यके कर्ता पहले तो दोनों सम्प्रदायोंके लिए अन्य थे परन्तु पीछे जब अपनी अपनी टीकाओंके बलपर उनको आत्मसात् कर लिया गया तब पीछेके लेखकोंको उन्हें अपनी अपनी परम्परामें स्थान देनेको विवश होना पड़ा, जिसमें एकवाक्यता न रही और यह गड़बड़ मच गई।
उमास्वाति यापनीय थे तब उमाखाति किस सम्प्रदायके थे ? सबसे पहले मुझे एक शिलालेखके नीचे लिखे हुए श्लोकसे उनके सम्प्रदायका आभास मिला
१- मैसूरके नगर तालुकेका ४६ वें नम्बरका शिलालेख । एपिग्राफिआ कर्नाटिकाकी आठवीं जिल्द।
३.१.१०.
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