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अंक १]
भी और एक जगह 'उक्तं च ' रूपसे उद्धृत किया है ।
२ राजवार्तिकमें अनेक जगह भाष्यमान्य सूत्रोंका विरोध किया हैऔर भाष्यके मतका भी कई जगह खण्डन किया है ।
उमास्वातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय [ १२९
३ पं० कैलासचन्द्रजी शास्त्री और पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य दिगम्बरसम्प्रदाय के विशिष्ट विद्वान् हैं । वे भी मानते हैं कि अकलंकदेव भाष्यसे परिचित थे । डा० जगदीशचन्द्रजी शास्त्री एम० ए० ने भी भाष्य और वार्तिकके अनेक उद्धरण देकर इस बातको सिद्ध किया है।
न्त्यान्तिकमैकान्तिकं निरुपमं निरतिशयं नित्यं निर्वाणसुखमवाप्नोतीति । एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्यात्मनो भृशं ......" - भाष्य
“ततः शेषकर्मक्षयाद्भावबन्धनिर्मुक्तः निर्दग्धपूर्वोपादनेन्धनो निरुपादान इवाग्निः पूर्वोपात्तभववियोगाद्धेत्वभावाच्चोत्तरस्याप्रादुर्भावात्सान्तसंसारसुखमतील आत्यन्तिकमैकान्तिकं निरुपमं निरतिशयं निर्वाणसुखमवाप्नोतीति । तत्त्वार्थभावनाफलमेतत् । उक्तं च- - एवं तत्त्वपरिज्ञानादिरस्यात्मने भृशं ..." - राजवार्तिक ( जैन ज्ञानपीठ बनारसमें राजवार्तिककी जो ताडपत्री प्रति आई है, उसमें 'एवं तत्त्वपरिज्ञानाद्विरक्तस्य' ही पाठ है, छपी प्रति जैसा 'सम्यक्त्वज्ञानचारित्रसंयुक्तस्य' नहीं ।) यह पिछला पाठ सम्पादकोंद्वारा अमृतचन्द्रसूरिके 'तत्त्वार्थसार' के अनुसार बनाया गया है और तत्त्वार्थसारको राजवार्तिकका पूर्ववर्ती समझ लिया गया है जो कि भ्रम है । )
१ - राजवार्तिक ( मुद्रित ) पृ० ३६१ ।
२ - तृतीय अध्यायके पहले भाष्यसम्मत सूत्रमें 'पृथुतराः ' पाठ अधिक है । इसको लक्ष्य करके राजवार्तिक ( पृ० ११३ ) में कहा है- “पृथुतरा इति केषांचित्पाठः ।" चौथे अध्यायके नवें सूत्रमें 'द्वयोर्द्वयोः ' पद अधिक है । इसपर रा०वार्तिक ( पृ० १५३)में लिखा है - "द्वयोर्द्वयोरिति वचनात्सिद्धिरिति चेन्न आर्षविरोधात् ।" इसी तरह पाँचवें अध्यायके ३६ वें सूत्र 'बन्धे समाधिकौ पारिणामिकौ" को लक्ष्य करके पृ० २४२ में लिखा है - " समाधिकावित्यपरेषां पाठः...स पाठो नोपपद्यते । कुतः, आर्षविरोधात् ।”
३ – पाँचवे अध्याय के अन्तमें 'अनादिरादिमांश्च' आदि तीन सूत्र अधिक हैं । पृ० २४४ में इन सूत्रोंके मतका खंडन किया है। इसी तरह नवें अध्यायके ३७ वें सूत्रमें 'अप्रमत्तसंयतस्य' पाठ अधिक है, उसका विरोध करते हुए पृ० ३५४ में लिखा है, "धर्म्यमप्रमत्तस्येति चेन्न । पूर्वेषां विनिवृत्तप्रसंगात् ।”
४ - देखो, न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना पृ० ७१ ।
५ - देखो, अनेकान्त वर्ष ३, अंक ४- ११ में 'तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक', जैन सिद्धान्तभास्कर वर्ष ८ और ९, जैनसत्यप्रकाश वर्ष ६ अंक ४ में 'तत्त्वार्थभाष्य और राजवार्तिक' में शब्दगत और चर्चागत साम्य तथा सूत्रपाठसम्बन्धी उल्लेख ।'
३.१.१७.
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