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१३२ ] भारतीय विद्या
[ वर्ष ३
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७ भाष्यकी लेखनशैली भी सर्वार्थसिद्धिसे प्राचीन मालूम होती है । वह प्रसन्न और गंभीर होते हुए भी दार्शनिकताकी दृष्टिसे कम विकसित और कम परिशीलित है । संस्कृतके लेखन और जैनसाहित्य में दार्शनिक शैलीके जिस विकासके पश्चात् सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है, वह विकास भाष्यमें नहीं दिखाई देता । अर्थदृष्टिसे भी सर्वार्थसिद्धि अर्वाचीन मालूम होती है । जो बात भाष्य में है, सर्वार्थसिद्धिमें उसको विस्तृत करके और उसपर अधिक चर्चा करके निरूपण किया गया है । व्याकरण और जैनेतर दर्शनोंकी चर्चा भी उसमें अधिक है । जैन परिभाषाका जो विशदीकरण और वक्तव्यका पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि में है वह भाष्य में कमसे कम है । भाष्यकी अपेक्षा उसमें तार्किकता अधिक है और अन्यदर्शनोंका खंडन भी जोर पकड़ता है । ये सब बातें सर्वार्थसिद्धिसे भाष्यको प्राचीन सिद्ध करती हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि भाष्य पूज्यपाद, अकलंकदेव, वीरसेन आदि आचार्यों से पहले का है और उससे उक्त सभी आचार्य परिचित थे । उन्होंने उसका किसी न किसी रूप में उपयोग भी किया है और उसकी यह प्राचीनता स्वोपज्ञताका ही समर्थन करती है ।
भाष्य स्वोपज्ञ ही होना चाहिए
तत्त्वार्थ जैसे संक्षिप्त सूत्र ग्रन्थपर खोपज्ञ भाष्य होना ही चाहिए। क्योंकि एक तो जैनदर्शनका यह सबसे पहला संस्कृतबद्ध सूत्र-ग्रन्थ है, जो अन्य दर्शनोंके दार्शनिक सूत्रोंकी शैलीपर रचा गया है । जैनधर्मके अनुयायी इस संक्षिप्त सूत्र-पद्धति से पहले परिचित नहीं थे । वे भाष्य की सहायता के बिना उससे पूरा लाभ नहीं उठा सकते थे। दूसरे इसकी रचनाका एक उद्देश्य इतर दार्शनिकों में भी जैनदर्शनकी प्रतिष्ठा करना जान पड़ता है । इसलिए भी सूत्रोंका भाष्य आवश्यक हो जाता है ।
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सूत्रकारको उस समय यह चिन्ता अवश्य हुई होगी कि यदि मैंने स्वयं अपने सूत्रोंका भाष्य नहीं किया, अपने अभिप्रायोंको स्पष्ट नहीं किया, तो आगे लोग उनका अनर्थ कर डालेंगे । पाटलिपुत्र में विहार करते हुए उन्होंने
१ – उदाहरण के लिए देखो अ० १-२, १-१२, १३२, और २-१ सूत्रों का भाष्य और सर्वार्थसिद्धि ।
२ - देखो, हिन्दी तत्त्वार्थ की भूमिका पृ० ८६-८८
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