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अंक १] उमास्वातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय [१२७ भेदका कारण तो मतभिन्नता माना जा सकता है, परन्तु अन्य सूत्रोंमें जो न्यूनाधिक अन्तर है, उसका कारण अभी गवेषणीय है ।
__ ग्रन्थकारका परिचय भाष्यके अन्तमें नीचे लिखी प्रशस्ति मिलती हैवाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः॥१ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥२ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कोभीषणिना स्वातितनयेन वात्सीसुतेनाऽय॑म् ॥ ३ अर्हद्वचनं गुरुक्रमेणागतं समुपधार्य । दुःखातं च दुरागमविहतमतिं लोकमवलोक्य ॥४ इदमुच्चै गरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धं । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ॥ ५ यत्तत्त्वार्थाधिगमाख्यं ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् ।। सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥६ अर्थात्-जो वाचकमुख्य शिवश्रीके प्रशिष्य, ग्यारह अंगधारी घोषनन्दिक्षमणके शिष्य और वाचनासे (विद्याग्रहणकी दृष्टिसे) महावाचकक्षमण मुण्डपादके प्रशिष्य तथा 'मूल' नामके वाचकाचार्यके शिष्य थे जिनका गोत्र कौभीषणि था, जो खाति पिता और वात्सी माताके पुत्र थे, जिनका जन्म 'न्यग्रोधिका' में हुआ, जो उच्चनागर शाखामें हुए और श्रेष्ठनगर कुसुमपुर (पाटलिपुत्र या पटना)में विहार कर रहे थे, उन उमाखाति वाचकने गुरुपरम्परासे प्राप्त अहंद्वचनोंको भले प्रकार अवधारण करके लोगोंको दुःखोंसे त्रस्त
और दुरागमोंसे हतबुद्धि देखकर अनुकम्पापूर्वक इस तत्त्वार्थाधिगम नामके स्पष्ट शास्त्रकी 'रचनाकी। जो इस तत्त्वार्थाधिगमको जानेगा और इसके कथनानुसार आचरण करेगा, वह अव्याबाध सुख मोक्षको शीघ्र प्राप्त करेगा।
.भाष्यकी यह प्रशस्ति ग्रन्थकर्तीका पूरा परिचय देनेवाली और विश्वस्त है। इसमें कोई बनावट नहीं मालूम होती और इससे प्रकट होता है कि मूलसूत्रके कर्तीका ही यह भाष्य है ।
१- प्रशस्तिके पाँचवें पद्यका ‘स्पष्ट' पद 'तत्त्वार्थाधिगम' का विशेषण है और वह भाष्यका संकेत करता है।
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