________________
१६] भारतीय विद्या
[घर्ष ३ कभी कभी सम्प्रदायाभिनिवेश वश अपढ़ व्यक्ति भी, आजहीकी तरह उस समय भी विद्वानोंके सम्मुख चर्चा करनेकी धृष्टता करते होंगे । इस स्थितिका मजाक करते हुए सिद्धसेन कहते हैं कि विना ही पढ़े पण्डितमन्य व्यक्ति विद्वानोंके सामने बोलनेकी इच्छा करता है फिर भी उसी क्षण वह नहीं फट पड़ता तो प्रश्न होता है कि क्या कोई देवताएँ दुनियापर शासन करने वाली हैं भी सही ? अर्थात् यदि कोई न्यायकारी देव होता तो ऐसे व्यक्तिको तत्क्षण ही सीधा क्यों नहीं करता।
यदशिक्षितपण्डितो जनो विदुषामिच्छति वक्तमप्रतः ।
न च तरक्षणमेव शीर्यते जगतः किं प्रभवन्ति देवताः ॥ (६.१) विरोधी बढ़ जानेके भयसे सच्ची बात भी कहने में बहुत समालोचक हिचकिचाते हैं । इस भीरु मनोदशाका जवाब देते हुए दिवाकर कहते हैं कि पुराने पुरुषोंने जो व्यवस्था स्थिर की है क्या वह सोचने पर वैसी ही सिद्ध होगी ? अर्थात् सोचने पर उसमें भी त्रुटि दिखेगी तब केवल उन मृत पुरुखोंकी जमी प्रतिष्ठाके कारण हाँ में हाँ मिलानेके लिए मेरा जन्म नहीं हुआ है। यदि विद्वेषी बढ़ते हों तो बढें ।
पुरातना नियता व्यवस्थितिस्तत्रैव सा किं परिचिन्त्य सेत्स्यति ।।
तथेति वक्तुं मृतरूढगौरवादहन्न जातः प्रथयन्तु विद्विषः॥ (६. ३) हमेशा पुरातन प्रेमी, परस्पर विरुद्ध अनेक व्यवहारोंको देखते हुए भी अपने इष्ट किसी एकको यथार्थ और बाकीको अयथार्थ करार देते हैं। इस दशासे ऊब कर दिवाकर कहते हैं कि-सिद्धान्त और व्यवहार अनेक प्रकारके हैं, वे परस्पर विरुद्ध भी देखे जाते हैं । फिर उनमेंसे किसी एककी सिद्धिका निर्णय जल्दी कैसे हो सकता है ? तथापि यही मर्यादा है दूसरी नहीं ऐसा एकतरफ निर्णय कर लेना यह तो पुरातन प्रेमसे जड़ बने हुए व्यक्तिको ही शोभा देता है, मुझ जैसें को नहीं ।
बहुप्रकाराः स्थितयः परस्पर विरोधयुक्ताः कथमाशु निश्चयः।
विशेषसिद्धावियमेव नेति वा पुरातनप्रेमजलस्य युज्यते ॥ (६. ४) जब कोई नई चीज आई तो चटसे सनातन संस्कारी कह देते हैं कि, यह तो पुराना नहीं है । इसी तरह किसी पुरातन बातकी कोई योग्य समीक्षा करे तब भी वे कह देते हैं कि यह तो बहुत पुराना है, इसकी टीका न कीजिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org