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अंक १]
प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर [१५ उसका पता अभीतक इतिहासको नहीं है । एक वार सिद्धसेनके द्वारा सब दर्शनोंके वर्णनकी प्रथा प्रारम्भ हुई कि फिर आगे उसका अनुकरण किया जाने लगा । आठवीं सदीके हरिभद्रने 'षड्दर्शनसमुच्चय' लिखा, चौदहवीं सदीके माधवाचार्यने 'सर्वदर्शनसंग्रह' लिखा; जो सिद्धसेनके द्वारा प्रारभ्य की हुई प्रथाका ही विकास है। जान पड़ता है सिद्धसेनने चार्वाक, मीमांसक आदि प्रत्येक दर्शनका वर्णन किया होगा, परन्तु अभी जो बत्तीसियां लभ्य हैं उनमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध, आजीवक और जैन दर्शनकी निरूपक वत्तीसियां ही हैं । जैन दर्शनका निरूपण तो एकाधिक बत्तीसियोंमें हुआ है । पर किसी भी जैन जैनेतर विद्वान् को आश्चर्य चकित करनेवाली सिद्धसेन की प्रतिभाका स्पष्ट दर्शन तब होता है जब हम उनकी पुरातनत्व समालोचना विषयक
और वेदान्त विषयक दो बत्तीसियोंको पढ़ते हैं । यदि स्थान होता तो उन दोनों ही बत्तीसियोंको में यहाँ पूर्ण रूपेण देता। मैं नहीं जानता कि भारतमें ऐसा कोई विद्वान् हुआ हो जिसने पुरातनत्व और नवीनत्वकी इतनी क्रान्तिकारिणी तथा हृदयहारिणी एवं तलस्पार्शनी निर्भय समालोचना की हो । मैं ऐसे विद्वान् को भी नहीं जानता कि जिस अकेले ने एक बत्तीसीमें प्राचीन सब उपनिपदों तथा गीताका सार वैदिक और औपनिषद भाषामें ही शाब्दिक और आर्थिक अलङ्कार युक्त चमत्कारकारिणी सरणीसे वर्णित किया हो । जैन परम्परामें तो सिद्धसेनके पहले और पीछे आज तक ऐसा कोई विद्वान् हुआ ही नहीं है जो इतना गहरा उपनिषदोंका अभ्यासी रहा हो और औपनिषद भाषामें ही औपनिषद तत्त्वका वर्णन भी कर सके। पर जिस परम्परामें सदा एक मात्र उपनिषदोंकी तथा गीताकी प्रतिष्ठा है उस वेदान्त परम्पराके विद्वान् भी यदि सिद्धसेनकी उक्त बत्तीसीको देखेंगे तब उनकी प्रतिभाके कायल होकर यही कह उठेंगे कि आज तक यह ग्रन्थरत दृष्टिपथमें आनेसे क्यों रह गया । मेरा विश्वास है कि प्रस्तुत बत्तीसीकी ओर किसी भी तीक्ष्ण-प्रज्ञ वैदिक विद्वान् का ध्यान जाता तो वह उस पर कुछ न कुछ विना लिखे न रहता । मेरा यह भी विश्वास है कि यदि कोई मूल उपनिषदोंका साम्नाय अध्येता जैन विद्वान् होता तो भी उस पर कुछ न कुछ लिखता । जो कुछ हो, मैं तो यहाँ सिद्धसेन की प्रतिभा के निदर्शक रूपसे प्रथमके कुछ पद्य भाव सहित देता हूँ।
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