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अंक १]
प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर [१७ इस अविवेकी मानसको देख कर मालविकाग्निमित्रमें कालिदासको कहना पड़ा है कि
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः॥ ठीक इसी तरह दिवाकरने भी भाष्यरूपसे कहा है कि- यह जीवित वर्तमान् व्यक्ति भी मरने पर आगेकी पिढ़ीकी दृष्टिसे पुराना होगा; तब वह भी पुरातनोंकी ही गिनतीमें आ जायगा । जब इस तरह पुरातनता अनवस्थित है अर्थात् नवीन भी कभी पुरातन है और पुराने भी कभी नवीन रहे; तब फिर अमुक वचन पुरातन कथित है ऐसा मान कर परीक्षा विना किए उस पर कौन विश्वास करेगा ? __ जनोऽयमन्यस्य मृतः पुरातनः पुरातनैरेव समो भविष्यति ।
पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ॥ (६.५) पुरातन प्रेमके कारण परीक्षा करनेमें आलसी बन कर कई लोग ज्यों ज्यों सम्यग् निश्चय कर नहीं पाते हैं यों त्यों वे उलटे मानों सम्यग् निश्चय कर लिया हो इतने प्रसन्न होते हैं और कहते हैं कि पुराने गुरु जन मिथ्याभाषी थोड़े हो सकते हैं ? मैं खुद मन्दमति हूँ उनका आशय नहीं समझता तो क्या हुआ ? ऐसा सोचने वालोंको लक्ष्यमें रख कर दिवाकर कहते हैं कि वैसे लोग आत्मनाशकी ओर ही दौड़ते हैं। .
विनिश्चयं नैति यथा यथालसस्तथा तथा निश्चितवत्प्रसीदति ।
अवन्ध्यवाक्या गुरवोऽहमल्पधीरिति व्यवस्यन् स्ववधाय धावति ॥ शास्त्र और पुराणोंमें देवी चमत्कारों और असम्बद्ध घटनाओंको देख कर जब कोई उनकी समीक्षा करता है तब अन्धश्रद्धालु कह देते हैं, कि भाई ! हम ठहरे मनुष्य, और शास्त्र तो देव रचित हैं; फिर उनमें हमारी गति ही क्या? इस सर्व सम्प्रदाय-साधारण अनुभवको लक्ष्यमें रख कर दिवाकर कहते हैं, कि हम जैसे मनुष्यरूप धारियोंने ही, मनुष्योंके ही चरित, मनुष्य अधिकारीके ही निमित्त प्रथित किये हैं । वे परीक्षामें असमर्थ पुरुषोंके लिए अपार और गहन भले ही हों पर कोई हृदयवान् विद्वान् उन्हें अगाध मान कर कैसे मान लेगा? वह तो परीक्षापूर्वक ही उनका खीकार-अस्वीकार करेगा ।
मनुष्यवृत्तानि मनुष्यलक्षणैर्मनुष्यहेतोर्नियतानि तैः स्वयम् । अलब्धपाराण्यलसेषु कर्णवानगाधपाराणि कथं ग्रहीष्यति ॥ (६. ७)
३.१.३.
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