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११४ ] भारतीय विद्या
[तृतीय इतनी विवेकयुक्त सच्ची नम्रता व्यापारीमें सुलभ नहीं। ऐसी नम्रता देख कर मुझे भारविका 'न भूरि दानं विरहय्य सक्रियाम् ।' वाक्य याद आ जाता था।
अंतिम इच्छा और अंतिम मुलाकात - ई० १९४३ के ऑगस्टमें उनका एक पत्र मेरे पर अमदाबाद आया। जब मैं कारबंकलसे मुक्त हो कर हॉस्पीटलसे घर आ गया था। उसमें उन्होंने लिखा था कि 'डॉ० श्यामाप्रसादजी पहिले मिले थे, और अभी सर् आशुतोष चेयरके प्रोफेसर विधुशेखर शास्त्रीजी मिलने आये थे। उन लोगोंकी इच्छा है कि कलकत्ता युनिवर्सिटीमें जैन -चेयर स्थापित हो और मैं मदद करूं। शास्त्रीजी आप ही को जैन -चेयर पर बुलाना चाहते हैं । इसलिये यदि आप कलकत्ता आवें तो जैन-चेयरके लिये पूरा खर्च करना मुझे पसंद है । आपके खर्चका तो प्रश्न ही नहीं । पर दूसरे सहायक अध्यापकका खर्च भी आप आवे तो मैं कर सकता हूँ' इत्यादि । मैं स्वस्थ होनेके बाद बम्बई आया और आचार्य श्री जिनविजयजीके साथ सितम्बरमें कलकत्ता गया। थोड़े ही महिने पहले सिंघीजी, सिंघी जैन सिरीझ, भारतीय विद्या भवनको सारे खर्चकी अपनी जवाबदेहीके साथ, सौंप चुके थे। सिंघीजी दिलसे चाहते थे कि मैं कलकत्ता रहूँ, पर मैंने जब अपना निर्णय बतलाया कि 'अब तो ऐसी कायमी जवाबदेही लेनेको मैं तैयार नहीं हूँ। चाहे, काम शुरू करना हो तो थोड़े महिने जरूर आ जाऊंगा। मैंने उस समय रहना स्वीकार न किया और उनकी वह अन्तिम इच्छा यों ही रह गई। मैं वहाँसे काशीके लिये निकला । विदा होते समय सिंघीजीके उद्गार ये थे कि 'अब तो मिलना कब होता है सो भगवान जाने ।' बराबर उस वक्त वे शान्तिविजयजी महाराजके स्वर्गवासके निमित्त होनेवाली शोक सभाके लिये जा रहे थे। इसलिये मुझसे यह भी कहा कि 'गुरुजी मुझसे छोटे थे पर पहले गये । अब देखें हम कब तक जीएँगे और अपना कब मिलना होगा।' यही हमारी अंतिम मुलाकात ।
सिंघीजीका सर्वतोमुखी विद्यानुराग जैसा कि मैंने प्रारम्भमें सूचित किया है सिंघीजीके साथ मेरा परिचय २५ वर्षसे अधिक समय तक रहा है। इस सुदीर्घ परिचयके जितने प्रसङ्ग मुझको अभी स्मृतिगत रहे उनमेंसे अनेकोंको स्थान और समयाभाव के कारण यहाँ छोड़ दिया गया है। पर जो थोड़े प्रसङ्ग - स्मरण मैंने ऊपर दिये हैं उनके ऊपर
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