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अंक १]
प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर [११
समय विक्रमकी पाँचवीं और छट्ठी शताब्दीका मध्य जान पड़ता है, उसे देखते हुए अधिक संभव यह है कि उज्जैनीका वह राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय या उसका पौत्र स्कन्दगुप्त होगा । जो कि विक्रमादित्य रूपसे प्रसिद्ध रहे ।
सभी नये पुराने उल्लेख यही कहते हैं कि सिद्धसेन जन्म से ब्राह्मण थे । यह कथन बिलकुल सत्य जान पड़ता है, क्यों कि उन्होंने प्राकृत जैन वाङ्मयको संस्कृत में रूपान्तरित करनेका जो विचार निर्भयता से सर्व प्रथम प्रकट किया वह ब्राह्मण-सुलभ शक्ति और रुचिका ही द्योतक है । उन्होंने उस युगमें जैन दर्शन तथा दूसरे दर्शनोंको लक्ष्य करके जो अत्यन्त चमत्कारपूर्ण संस्कृत पद्यबद्ध कृतियोंकी देन दी है वह भी जन्मसिद्ध ब्राह्मणत्वकी ही द्योतक है । उनकी जो कुछ थोड़ी बहुत कृतियाँ प्राप्य हैं उनका एक एक पद और वाक्य उनकी कवित्व विषयक, तर्क विषयक, और समग्र भारतीय दर्शन विषयक तलस्पर्शी प्रतिभाको व्यक्त करता है ।
आदि जैन कवि एवं आदि जैन स्तुतिकार
हम जब उनका कवित्व देखते हैं तब अश्वघोष, कालिदास आदि याद आते हैं । ब्राह्मण-धर्ममें प्रतिष्ठित आश्रम व्यवस्थाके अनुगामी कालिदासने लग्नभावनाका औचित्य बतलानेके लिए लग्नकालीन नगर प्रवेशका प्रसंग लेकर उस प्रसंगसे हर्षोत्सुक स्त्रियोंके अवलोकन कौतुकका जो मार्मिक शब्द - चित्र खींचा है वैसा चित्र अश्वघोषके काव्य में और सिद्धसेनकी स्तुति में भी है । अन्तर केवल इतना ही है कि अश्वघोष और सिद्धसेन दोनों श्रमणधर्ममें प्रतिष्ठित एक मात्र त्यागाश्रमके अनुगामी हैं इसलिए उनका वह चित्र वैराग्य और गृहत्यागके साथ मेल खाए ऐसा है । अतः उसमें बुद्ध और महावीर के गृहत्याग से खिन्न और उदास स्त्रियोंकी शोकजनित चेष्टाओंका वर्णन है नहीं कि हर्षोत्सुक स्त्रियोंकी चेष्टाओंका । तुलनाके लिए नीचे के पद्योंको देखिए । अपूर्व शोकोपनतकुमानि नेत्रोदकक्लिन्न विशेषकाणि । विविक्तशोभान्यबलाननानि विलापदाक्षिण्यपरायणानि ॥ मुग्धोन्मुखाक्षाण्युपदिष्टवाक्यसंदिग्धजल्पानि पुरःसराणि । बालानि मार्गाचरणक्रियाणि प्रलंबवस्त्रान्तविकर्षणानि ॥ अकृत्रिम स्नेहमय प्रदीर्घदीनेक्षणाः साश्रुमुखाश्च पौराः । संसारसाम्यज्ञजनैकबन्धो न भावशुद्धं जगृहुर्मनस्ते ॥
( सिद्ध० ५ - १०, ११, १२ )
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