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११६] भारतीय विद्या
[ तृतीय
भावनाका घनीभूत वातावरण फैला रहने पर भी उसका उनके मन पर कोई खास प्रभाव नहीं था । उनकी मनोवृत्ति विचारप्रधान थी, आचारजड नहीं । विचारशील व्यक्ति, जिसका बाह्य आचार फिर कैसे ही मार्गका अनुगामी हो, उनकी दृष्टिमें आदरपात्र रहता था । किसीके विभिन्न आचारको देख कर वे संकुचित या चकित हो जानेकी क्षुद्र वृत्ति रखने वाले नहीं थे । इससे उलटा, किसी भी विचारजड़ व्यक्तिके विषयमें उनका किंचित् भी आदर भाव नहीं होता था, चाहे फिर वह व्यक्ति औरों की दृष्टिमें कितना ही धर्मात्मा क्यों न हों ।
उपसंहार
सिंघजी के साथ एक बार मुनिजीका और मेरा सम्बन्ध होनेके बाद वह केवल स्थिर ही नहीं हुआ, बल्कि वह उत्तरोत्तर बढ़ता और विशद होता गया । उसका क्या कारण ? यह प्रश्न मेरी तरह हम लोगोंको जाननेवाले और भी कइयोंके मनमें उठता होगा । इसके उत्तरके साथ ही प्रस्तुत स्मरणका उपसंहार करना चाहता हूँ | ध्येयकी समानता, पारस्परिक गुणदृष्टि और असाम्प्रदायिक स्वतन्त्र मनोवृत्ति - ये तीन ही ऐसा सम्बन्ध बंधनेके मुख्य कारण मुझको प्रतीत होते हैं । कला, स्थापत्य, साहित्य, पुरातत्त्व, इतिहास और तत्वज्ञान आदि मूल्यवंती भारतीय पैतृक सम्पत्तिकी - विशेषतः जैनपरम्पराश्रित वैसी सम्पत्तिकी - सुरक्षा, उसका ऐतिहासिक दृष्टि से सम्पादन - प्रकाशन और यथासम्भव परिवर्धन करना यही एकमात्र मुनिजीका तथा सिंघीजीका ध्येय रहा है । जो मेरी प्रकृतिके लिये भी बिलकुल अनुकूल ही था । इस तरह ध्येयकी समानता होने पर भी बाकीके दो तत्त्व न होते तो आपसी सम्बन्धकी इतनी पुष्टि और विशदता शायद ही होती । सिंधीजी धनवान् थे पर उनकी प्रकृति खुशामदप्रिय न थी । हम दोनों यथासम्भव विद्योपासक और विद्याजीवी रहे, फिर भी हममें से किसीकी प्रकृति खुशामदखोर नहीं। तीनों का पारस्परिक आकर्षण गुणदृष्टिमूलक रहा और वह मुख्य ध्येयकी सिद्धिके साथ ही साथ वृद्धिङ्गत होता गया । परन्तु पारस्परिक सम्बन्धकी विशदताका मुख्य आधार तो मुझको असाम्प्रदायिक खतन्त्र मनोवृत्तिका साम्य मालूम होता है । इस वृत्तिके उद्बोध और विकासके साथ ही मुनिजीने तो अपना साम्प्रदायिक वेश और तदनुकूल जीवनव्यवहार कभीका फेंक- फांक दिया था। सिंघीजी यद्यपि पारम्परिक जैन संस्कार में जन्मे और संवर्धित हुए थे; परन्तु उनकी दृष्टि भी पुरातत्त्वीय और ऐतिहासिक अनुशीलन के साथ साथ
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