________________
वर्ष]
स्वर्गस्थ सिंघीजीके कुछ संस्मरण [११५ से कोई भी पाठक सिंघीजीके बहुमुखी व्यक्तित्वको समझ सकता है और साथ ही जब वह मुनीजीके लिखे विस्तृत परिचयवर्णनको पढ़ेगा तब उसके मनमें यह प्रतीति और भी दृढ़तर और विशद हो जायगी कि सिंधीजीकी विद्याभिरुचि किसी एक विषयमें सीमित न थी । मैं गुजरात, मारवाड़, पंजाब, यू० पी०, बिहार और बंगालके अनेक प्रतिष्ठित और धनी मानी जैन कुटुंम्बोंके परिचयमें थोडा बहुत रहा हूँ। कई बड़े बड़े कुटुम्बोंके साथ तो मेरा सहवासजन्य निकट परिचय भी रहा है; पर सिंघीजी जैसी महानुभावता मैंने अभी तक किसी अन्य व्यक्तिमें नहीं देखी है । परम्परासे व्यापारी संस्कारवाले समाजमें, व्यापारिक कुशलतावाले और बुद्धिमान व्यक्तियों का होना सुलभ है; पर व्यापारिक-कौशल और बुद्धिपाटवके साथ सांस्कृतिक विद्याओंकी उत्कट अभिरुचि
और कुशलताका सुयोग उतना ही दुर्लभ है । सिंघीजीमें यह सुयोग था इसीलिए मैं उन्हें महानुभाव कहता हूँ। इतिहासप्रसिद्ध वस्तुपाल मंत्रीकी जीवनकथा पढ़ते समय मेरे मनमें कई बार संदेह होता था कि क्या सचमुच इतनी परस्पर विरुद्ध दीखने वाली सिद्धियाँ व्यापारी कुलके एक संतानमें संभव हैं ? पर सिंघीजीके विशेष परिचयने मेरे उस संदेहको सर्वथा निर्मूल कर दिया था कि व्यापारी होते हुए भी वह इतिहास, पुरातत्त्व, चित्रकला, स्थापत्य, मूर्तिरचना, निष्कविद्या और मणिरत्न - परीक्षामें निष्णात हो सकता है । १९४२ के सितम्बरमें एक दिन मैंने सिंघीजीके मुखसे कोयले और पत्थरकी विविध जातियोंके स्थान, उत्पत्ति और गुण-दोष विषयक तुलनात्मक वर्णन सुने तो मैं अंतमें सहसा बोल उठा कि 'आप तो इस विषयके अध्यापक हो सकते हैं । ।
यों उनका खभाव अल्पभाषी था, बाकीके व्यवहारकी बातोंमें जहाँ २० शब्द बोलनेकी आवश्यकता प्रतीत होती वहाँ वे उसे १०में ही खतम कर देना पसंद करते थे, पर इन सांस्कृतिक विषयों की चर्चा करते वे मानों कभी थकते ही न थे। उनके ऐसा सर्वतोमुखी विद्याप्रेमी और कोई धनिक गृहस्थ मेरे परिचयमें नहीं आया।
ऐसे उत्कट विद्याप्रेमके साथ उनकी चित्तवृत्ति भी बड़ी विलक्षण उदार थी, जो बडे बडे विद्याप्रेमियोंमें भी बहुत ही कम देखी जाती है। स्वयं ऐसे विशिष्ट रूढिप्रिय एवं पुराने आदर्शवाले समाजके एक सम्मान्य घरानेमें जन्म लेने पर और अपने आसपास संकुचित सांप्रदायिक और संकीर्ण सामाजिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org