________________
६] भारतीय विद्या
[वर्ष ३ भोट भाषामें अनुवाद - भोट भाषामें बौद्ध न्यायके ६८ ग्रंथोंके अनुवाद हुये । सबसे पुराने अनुवाद नवीं सदीमें हुये, उनकी संख्या १६ है, और ग्रंथ मी छोटे छोटे हैं । अन्तिम अनुवाद तेरहवीं सदीमें अधिकतर स-स्क्य महन्त राजोंके कालमें हुये, और इनकी संख्या चार है, यद्यपि इनमें तीन दिग्नागके ग्रंथ या उनपर टीका होनेसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । न्यायके ग्रंथोंके अनुवादका सुनहला काल है ग्यारहवीं सदीका उत्तरार्ध । इन्हीं पचास वर्षों में पश्चिमी तिब्बत (मानसरोवर गूगे) के राजाओंकी संरक्षकतामें न्यायके अधिकांश ग्रंथोंका अनुवाद हुआ। तत्त्वसंग्रह, तत्त्वसंग्रहपंजिका, कितनी ही टीकाओं, भाष्य तथा भाष्यटीकाओंके साथ प्रमाणवार्त्तिक, प्रमाणविनिश्चय (टीकायें भी) इसी समय भाषान्तरित की गई । प्रज्ञाकर गुप्तके भाष्यके अनुवादक थे कश्मीरी पंडित भव्यराज
और लोचव (तिब्बती पंडित) कोग्निवासी ब्यो-ल्दन्-शेस्-रब् । पीछे इसे पंडित कुमारश्री और लोचव फग्स्-प-शेस्-रबने फिरसे दुहराया । जहाँतक मूलकी सर्वतोभावेन रक्षा करनेका सवाल है, तिब्बती अनुवाद अपना सानी नहीं रखते। तो भी अनुवादसे संस्कृतकी प्रतिके मिलानेसे दोनोंमें कहीं कहीं कुछ पंक्तियां घटी-बढी मिलती हैं, जो शायद आदर्श प्रतिके कारण हो।
हस्तलेख- इन ग्रंथोंके अनुवादका केन्द्र पश्चिमी तिब्बत रहा है, जहाँपर उस वक्तका विहार थोलिङ् आज भी मौजूद है। ऐसी अवस्थामें अधिक आशा की जा सकती थी, कि संस्कृत प्रतियां वहीं मिले; मगर जान पडता है, तेरहवीं सदीमें मध्य तिब्बतके भाग जागनेके साथ सभी चीजें उठकर वहीं चली गई, भाष्यकी दोनों हस्तलिखित प्रतियाँ हमें स-स्क्य विहारमें मिलों । जिस वक्त भारतसे बौद्धधर्मका सूर्य अस्त हो रहा था, उस वक्त मध्य तिब्बतके स-स्क्य विहारका सितारा बुलन्द हो रहा था। अन्तिम भारतीय संघराज शाक्यश्रीभद्र विक्रमशिलाके ध्वंसके बाद कुछ समय बंगालमें धक्का खाते नेपाल होते १२०३ में स-स्क्य पहुँचे थे । साथमें उनके शिष्योंमें दानशील और विभूतिचंद्र भी थे। भाष्यके तीन परिच्छेदोमेंसे डेढको विभूतिने खयं 'उत्तर' में लिखा था । 'उत्तर से उनका मतलब भोट (तिब्बत) देशसे है। अभी भारतमें तालपत्रोंका युग था, मगर तिब्बतमें चीनसे कमीका कागज पहुँच चुका था । विभूतिचंद्रने २७ इंच लम्बे ४ इंच चौडे मटमैले कागजके साढे ५८ पत्रोंपर पुस्तकको लिखा है। मागची प्रभावके कारण अक्सर उन्होंने श-स और न-ण की गलती की है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org