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११२] भारतीय विद्या
[ तृतीय सिंधीजीका दरबार जमींदारी और दूसरे कारोबार के कारण उनके पास जो दरबार जमता था कह तो दूसरा; पर मैं जिस दरबारका निर्देश करता हूँ वह अलग है । चित्रकार, इतिहासज्ञ, दार्शनिक प्रोफेसर या पण्डित और दूसरे अनेक उस उस विषयके निष्णात उनके पास अनेक कारणोंसे आया करते और कलकत्तेमें जब मैं उनके निकट ऐसा विद्वानोंका दरबार देखता था तो मनमें मन्त्री वस्तुपालका स्मरण हो आता था। सबसे मौनपूर्वक सादर बात सुनना और यथोचित सत्कार करना यह उनका जीवित विद्यापूजन था।
अतिनम्र दानशीलता सिंधीजी जितने अधिक आतिथ्यप्रिय थे उतनी ही उनकी दानवृत्ति भी उदार थी । वे दान तो यथाशक्ति करते थे पर विशेषता उनकी यह थी कि उसकी जाहिरातका कोई प्रयत्न नहीं करना । निकट परिचय होने पर भी उनके बड़े बड़े और विशिष्ट दानोंका हाल मुझे बहुत पीछे मालूम हुआ। और मैंने उसके बारेमें कुछ पूछा तो बिलकुल संक्षेपमें जवाब मिला । पर उनकी खास विशेषता तो मैंने यह देखी कि दानसे भी अधिक दानपात्रके प्रति नम्रता और आदर । इस विशेषताका सूचक प्रसंग मैं अपने अंगत जीवनसे लिखू तो उससे कोई औचित्यभंग न होगा। ____ मैं अमदाबाद गूजरात विद्यापीठमें काम करता था। उस कामको पूरा निपटानेके बाद मेरी एक इच्छा यह भी थी कि मैं और प्रवृत्ति बंध करके अंग्रेजी पढूँ। मेरी इस इच्छाका न जाने उन्हें कहांसे पता चला। १९२८ ई० में जब मैं कलकत्ता था तो एक रोज अचानक मेरे कमरेमें आ कर बैठ गये। मुझसे पूछा कि क्या आपकी इच्छा अंग्रेजी पढ़नेकी है ?' मैंने कहा है तो सही पर अभी समय नहीं आया। शायद दो सालके बाद आवे ।' वे कहे कि 'जब समय आवे तब पढ़िये और अच्छा प्रबन्ध करके पढ़िये ।' मैंने कहा 'उस समय देखा जायगा।' उन्होंने कहा 'अच्छा रीडर, अच्छा शिक्षक और दूसरा भी सुचारु प्रबन्ध करोगे तो कितने खर्चका अन्दाज है ?' मैं शुरुमें सकुचाया । पर अन्तमें उन्होंने ही अच्छी जगह रह कर पढ़नेका अंदाज लगाया कि मासिक ढाई सौ तो चाहिए । मैं चुप था । उन्होंने सत्वर अपने आप मुझसे कहा कि 'ढाई सौ हो या तीन सौ जो खर्च हो आप यदि मुझसे लेंगे तो मैं अपनेको धन्य समझूगा.'
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