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१०६ ] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [ तृतीय
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आरामके साथ यात्री यात्राका पुण्योपार्जन करता है और अंतमें तलहट्टीमें खादु भोजन भी पाता है । मैंने इस बेतुके बर्तावकी टीका की कि 'आपको जो लोग यात्रा कराते हैं उनको छोड़ कर तलहट्टीमें मिठाई खाना क्या आपको शोभा देता है ? तलहट्टीवाले उनके वास्ते प्रबन्ध न करें तो न सही पर कंधे पर चढ़नेवाले यात्रिओं को तो कुछ सोचना चाहिए ।' मेरे इस कथन पर सिंघीजी आदि सब मंडलीका ध्यान गया । उन्होंने तत्क्षण निर्णय किया कि रोज अपनी पालखी उठानेवालोंके लिये एक मन गुड़ बांट देना । सिंघीजी और माजीकी सद्वृत्त और विद्वान् साधु प्रति बड़ी भक्ति रहती थी । तो भी पालीतानाकी धर्मशालाओंकी आगे पीछेकी गंदगी और अव्यवस्था देख कर वे वहाँ साधुसाध्वीओंके पास जाना पसंद करते न थे। पर जब सुना कि एक मोरबीकी रानीका अच्छा अनाथाश्रम है तब वे वहाँ गये । वहाँकी सफाई और अनाथोंकी परिचर्या देख कर उन्हें धर्मशालाओं की स्थिति और भी अखरी । वे भावनगर गये तो थे यात्रा - निमित्त; पर जब वे मेरी सूचना के अनुसार दक्षिणामूर्तिको देखने गये तब उसके बालमंदिर आदि विभागोंको, शिक्षकगणको तथा कार्यक्रमको देख उनके मन पर उत्तम छाप पड़ी ।
सिंधीजीकी सुधारक वृत्ति
सिंधीजीका जन्म और संवर्धन रूढ़िचुस्त शहर और समाजमें हुआ था । फिर भी योग्यायोग्यका विचार करनेकी शक्तिके कारण उनकी मनोवृत्ति विविध क्षेत्रों में सुधारककी थी। वे श्वेताम्बर थे, पर कहा करते थे कि 'दिगम्बर आदि दूसरे फिरकों के साथ उत्तरोत्तर मेल बढ़ानेका प्रयत्न आवश्यक है ।' इसी कारण वे बाबू छोटेलालजी जैन जो दिगम्बर हैं उनके साथ अनेक कार्योंमें सच्चे दिलसे मिल कर भाग लेते थे । सामाजिक प्रथामें भी उनका विचार सुधारगामी था । इसीसे उन्होंने अपने बड़े पुत्र श्रीमान् राजेन्द्रसिंहजीका लग्न पुरानी रूढ़ प्रथाका त्याग करके गूजरात - अहमदाबादमें किया और विरोधी रूढ़िवादी जो उनकी बिरादरीमें हैं उनकी एक भी बात न सुनी और न उनके तीव्र विरोधकी परवाह की । वे सामान्यतः वैधव्य प्रथाके समर्थक न थे और यदि कोई विधवा निर्भयता और सच्चाई से पुनर्लग्न करती हो तो वे उसके सम्मानके पक्षपाती थे । उन्हें स्त्रीशिक्षणको उत्तेजन देना बड़ा पसन्द था । एक बार हम लोग जालन्धर आर्यकन्या विद्यालयमें गये । उसके स्थापक लाला देवराजजी जो बहुत बुड्ढे और
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