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१०४] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय उसके प्रस्तावना आदि मार्मिक भाग पढ़ लेना । चाहे वह किसी विषयकी और किसी भाषामें क्यों न हो। इस तरह उनकी धर्म और तत्त्वज्ञानकी शिक्षा शुरू तो हुई घरमें और संप्रदायके घेरेमें, पर आगे जाकर वह व्यापक और संप्रदायमुक्त बन गई।
श्रद्धा और तर्कका सुमेल सिंधीजीकी तर्कशक्ति बहुत तीव्र थी। परन्तु उसका श्रद्धाके साथ सुभग मेल देखनेमें आता था । कुटुम्ब पितृपरंपरासे जैन होनेके कारण तथा मातापिता दोनोंकी दृढ़ श्रद्धालुताके कारण घरमें ऐसे अनेक नियम थे जो खास जैन धर्मसे सम्बन्ध रखते हैं । अमुक अमुक नियत तिथियोंपर सब्जीका त्याग, खास तिथि और पर्वके दिन मंदिरमें पूजा पढ़वाना इत्यादि प्रथाएँ नियमित रूपसे आज भी उनके घरमें चालू हैं । सिंघीजी उन नियमों और प्रथाओंका बराबर पालन करते रहे। फिर भी उनके तर्कवादने उन्हें कट्टर बनानेसे रोका था। वे खुद तो धर्मप्रथाका पालन करते रहे पर अन्यान्य अन्धश्रद्धालु जैनोंकी तरह वे दूसरोंके बारेमें कट्टर न होकर उदारवृत्ति वाले थे। दूसरा अपनी इच्छासे चाहे जैसा बरते इसमें उन्हें नाराजी नहीं। एक बार सांवत्सरिक पर्व था जो जैनोंका सर्वोत्तम पर्व है । उस दिन सिंघीजी नियमानुसार अपनी माता और कुटुम्बके साथ प्रतिक्रमण करने गये । मैं उसमें संमीलित न था। प्रतिक्रमण समाप्तिके बाद हम दोनों मिले। खमत- खामना हुआ। मैंने देखा कि मेरे प्रतिक्रमणमें संमीलित न होनेसे उनके मन पर कोई असर नहीं हुआ है। मैंने पूछा कि 'आपको प्रतिक्रमणमें कैसा रस आया ?' उन्होंने कहा 'थोड़ा प्रतिक्रमणका
और अधिकतर नींदका ही रस, बहुतसे प्रतिक्रमण करनेवालोंमें देखा ।' जब मैंने कहा 'इतनी लम्बी क्रियामें जवानोंका एकाग्र रहना सरल नहीं । तब वे कहने लगे कि 'यह सांवत्सरिक प्रतिक्रमणकी क्रिया इतनी अधिक लम्बी हो गई है कि वह आप ही अपने भारसे क्षीण हो रही है । और मैं देख रहा हूँ कि नई पीढियाँ दिन ब दिन उस भारसे ऊब रही हैं। अब तो सरल और रोचक आवश्यक कर्म जरूरी है । हम तो अपनी जींदगी तक जैसा भी है करते रहेंगे; पर दूसरोंसे वैसी अपेक्षा रखना बुद्धिमानी नहीं ।' पयूषणमें कल्पसूत्रका वाचनश्रवण जैनपरंपरामें असाधारण महत्त्व रखता है। छोटे बड़े स्त्री पुरुष सभी उसमें भाग लेते हैं। अजीमगंजमें कोई साधु १९४२ ई० में चातुर्मास थे। साधुजी
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