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खर्गस्थ श्रीसिंघीजीके कुछ संस्मरण ।
[लेखक-जैन दर्शनशास्त्राचार्य, पण्डितप्रवर श्रासुखलालजी संघवी]
ख० बाबू बहादुरसिंहजी सिंघीके साथ मेरे परिचयका सूत्रपात ई० १९१८में हुआ। ई० १९४४ तकके इस लम्बे समयमें हम दोनों जुदे जुदे स्थानोंमें अनेक बार मिले; अनेक बार बहुत दिनों तक साथ भी रहे। समाज, धर्म, तत्त्वज्ञान, साहित्य, कला, इतिहास और पुरातत्त्व आदि अनेक विषयोंपर उनके साथ मेरी चर्चा-वार्ता भी हुई। कमी कभी, साथ प्रवास भी किया । साहित्य और समाजके उत्कर्षकी दृष्टि से कई बार कार्यसाधक योजनाओंके बारेमें उनके साथ विचार करनेका भी काफी प्रसंग आया । इन सब प्रसंगोंमें मेरे मन पर सिंधीजीकी अनेक असाधारण विशेषताओंकी जो गहरी छाप पड़ी है, उसमेंसे कुछ विशेषताओंका निर्देश, यहाँ उनके प्रथम वार्षिकश्राद्धकी स्मरणाञ्जलीरूपसे करना चाहता हूँ।
बीजमेंसे वटवृक्ष ई० १९४२के सितम्बरमें जब कि सिंधीजी अपने जन्मस्थान अजीमगंजमें थे, मैं वहां गया था। मैंने प्रश्न किया कि 'इस अजीमगंज जैसे नवाबी शहरमें और व्यापारी कुटुंब तथा संस्कारमें आपको पुरातत्त्व, कला, इतिहास आदिका शौख कैसे लगा ?' उन्होंने जो उत्तर दिया उसमें मुझको एक छोटेसे बीजमेंसे बड़े बरगदकी कहानी दिखाई दी । वे अपने मातापिताके इकलौते पुत्र थे। उस समयकी हैसियतके अनुसार उन्हें उनके पिताजी बहुत मामूली हाथखर्ची देते थे। उनका बाहर बहुत जाना - आना पिता-माता पसंद कम करते थे। तो भी वे अपने मकानसे सटे हुए श्रीयुत पूर्णचन्द्र नाहर - जो उनके मोसेरे भाई होते थे-के मकानमें जाया - आया करते थे । नाहरजी पुरातत्त्वके शौखीन
और तत्सम्बन्धी चीजोंके संग्राहक थे । सिंघीजीने नाहरजीके पास कुछ सिक्के, चित्र आदि देखे और उनसे कुछ पूछताछ भी की । नाहरजीके बड़े चावके साथ समझाने पर धीरे धीरे सिंघीजीके दिलमें पुरानी और कलामय चीजोंके संग्रहकी इच्छाका बीजवपन हुआ। फिर तो वे अपनी हाथखर्ची ऐसी चीजोंको खरीदने और जुटानेमें ही लगाने लगे। पिताजीसे खानगी वे अपनी माताजीसे मी थोड़े बहुत पैसे पाते थे। उसको भी उन्होंने इसी शौखकी तृप्लिमें खर्च
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