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८८] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय अभिलाषा कर रखी थी- उस व्याधिग्रस्त, जराजीर्ण वृद्ध माताके परम वात्सल्य भावकी एवं महाविलापकी भी कोई कल्पना न कर, निर्मम भावसे चल बसे। वह माता जो इस पुत्रवियोगके असह्य भारसे भग्नहृदया होकर चार महिने पीछे अपने पुत्रकी संभाल लेनेको स्वयं भी परमधामके लिये प्रस्थान कर गई। . अब तो अन्तमें, उस धामके अधिष्ठाता परम पुरुष और परम शक्तिरूप जगन्माता-पिता इन परलोकवासी आत्माओंको परम शान्ति प्रदान करें यही मेरी परम अभिलाषा है।
सिंघीजीकी सत्संतति और उनके सत्कार्य सिंधीजी पुण्यवान् पुरुष थे। उनके जन्म लेने बाद ही उनके पिताजीका व्यवसाय बढा और वे एक छोटेसे व्यापारीके रूपमेंसे बढ कर क्रोडपति होनेकी प्रसिद्धि प्राप्त कर सके। उनके कुटुंब और सगे संबंधीयोंका परिवार अच्छा समृद्ध और सुविस्तृत हैं। वे अपने पीछे अत्यन्त सुयोग्य और सर्वकार्यक्षम तीन पुत्र तथा छोटे बड़े पांच पौत्र और तीन पौत्रियां छोड गये हैं। उनके पुत्र, अपने पुण्यश्लोक पिताके सर्वथा अनुरूप और आदर्शके पथगामी हैं। संस्कार, सदाचार, शिक्षण और सत्संगति आदि सभी बातों में ये अपने पिताका अनुकरण करनेवाले हैं । सिंघीजीके संकल्पित और स्थापित कामोंको तद्वत् चालू रखनेकी और उसमें यथायोग्य वृद्धि करनेकी भी इनकी पूरी सदिच्छा है। । श्रीमान् राजेन्द्रसिंहजीने अपने पिताकी पुण्यस्मृतिके निमित्त, मेरी प्रेरणासे, भारतीय विद्या भवनको ५० हजार रूपयोंका उदार दान दे कर, और उसके द्वारा उक्त नाहार लाईब्रेरीको खरीद कर, भवनको एक अमूल्य निधिके खपमें भेंट की और इस प्रकार अपने स्वर्गस्थ पिताकी उस अप्रकट शुभकामनाको, जिसका कि इनको बिल्कुल पता ही नहीं था, परिपूर्ण किया।
इसी तरह श्रीमान् नरेन्द्रसिंहजीने अपने पिताके पुण्यार्थ कलकत्तेके जैन भवनको ३०-३५ हजारका दान दे कर तथा सराक जातिकी उन्नतिके निमित्त, पिताजीका चालू किया हुआ सहायताके कार्यका भार उठाकर, अपनी उदारवृत्तिका खाता शुरू किया है। सिंधीजीके स्वर्गवासके बाद इन तीनों भाईयोंने मिलकर कोई ५०-६० हजार रूपये दान-पुण्यमें खर्च किये और उसी तरह, अपनी दादीमा अर्थात् सिंघीजीकी पूजनीया माताका जब स्वर्गवास (नवंबर, १९४४) हो गया तो उनके पीछे भी इन बन्धुओंने गत जनवरीमें कोई इतने ही हजार रूपये पुण्यार्थ व्यय किये।
सिंधीजीकी स्मृतिको अमर करनेवाला जो सबसे बडा कार्य-जिस कार्यको सिंधीजीने अपने जीवनका परमप्रिय कार्य माना था वह-सिंघी जैन ग्रन्थमालाका प्रकाशन उसी तरह चालू रखनेका श्रीराजेन्द्रसिंहजी तथा श्रीनरेन्द्रसिंहजीने उदात्त भावसे मेरे सम्मुख स्वीकृत किया है । इसके अतिरिक्त सिंघीजीका और भी कोई विशिष्ट प्रकारका सार्वजनिक स्मारक बनाया जाय इसकी भावना ये सिंघी बन्धु कर रहे हैं। ___ परमात्माकी कृपासे इनकी भावना सफल हों और ये दिन प्रतिदिन ऐसे सत्कार्योंसे अपने स्वर्गवासी पिताकी प्रतिष्ठाको सवाई बढा कर 'सवाई सिंघी'का पद प्राप्त करें, यही हमारी आन्तरिक मनःकामना है। तथास्तु ।
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