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४४ ] भारतीय विद्या
श्रीमान् राजेन्द्रसिंहजीके विवाह सम्बन्धका प्रस्ताव
प्रसङ्गकी अन्यान्य सब बातें तो व्यक्तिगत हो कर, सिंघीजीकी अपेक्षा, उनके मेरे
अनुपूर्ति [ तृतीय
टता रखती हैं। पर सिंघीजी सामाजिक विचारोंमें कैसे प्रगतिशील भावनावाले थे और उधर बंगाल में वसनेवाले जैनसमाज में वे एक कैसे सुधारप्रिय व्यक्ति थे इसका विशिष्ट परिचय इस प्रसङ्ग परसे मिलता है । इसलिये इसका उल्लेख यहां पर किये विना सिंघजी के साथ मेरे ये स्मरण संपूर्ण नहीं बन सकते ।
प्रसङ्ग यह था- - सिंघीजी के बडे चिरंजीव श्रीमान् राजेन्द्रसिंहजीकी धर्मपत्रीका कुछ महिनों पहले स्वर्गवास हो गया था । इससे उनका पुनः विवाह सम्बन्ध कहीं होना निश्चित था । हम लोग जब उक्त प्रकारसे केशरियाजीके मामलेमें उदयपुर में थे तब आणन्दजी कल्याणजीकी पेढीके एक प्रमुख प्रतिनिधि सेठ प्रतापसिंह मोहोलाल भाई भी प्रसङ्गोपात्त वहां आते जाते रहते थे । उन्होंने श्री राजेन्द्रसिंहजीकी धर्मपत्नीके स्वर्गवासके समाचार वहां किसीसे सुने, इसलिये उनके मनमें स्वभावतः ही यह इच्छा हुई, कि यदि संभव हो सके तो, वे अपनी एक पुत्री बहन सुशीलाका- जो उस समय विवाह
हो रही थी और जिसके सम्बन्धके विषय में सेठ प्रतापसिंह भाई प्रयत्नशील थे - श्रीराजेन्द्रसिंहजी से सम्बन्ध करनेका प्रस्ताव करें। प्रतापसिंह भाईको मालूम था कि मेरा स्नेहसम्बन्ध सिंघीजीके साथ बहुत घनिष्ठ है, इससे उन्होंने मेरे द्वारा यह प्रस्ताव उपस्थित करनेका मनमें सोचा । उदयपुरसे मैं जब अहमदाबाद पहुंचा तो एक दिन सेठ प्रतापसिंह भाई मेरे पास आये और उन्होंने अपने ये विचार प्रकट किये। पहले तो मैं सुन कर बड़े विचारमें पड गया । क्यों कि ऐसी बातोंसे मेरा कभी कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा । मैंने कभी किसीके व्यावहारिक जीवनकी कोई बात में रस नहीं लिया । सिंघीजीके साथ मेरा जो स्नेहसंबन्ध था वह केवल साहित्य विषयको लेकर था। इसके अतिरिक्त उनके या उनके कुटुंबके व्यावहारिक जीवनका मुझे कुछ भी पता नहीं था । मैं यह सामान्य ढंगसे जानता था कि बंगाल में बसनेवाले - खास कर मुर्शिदाबादी कहलानेवाले - जैन कुटुंब, सामाजिक व्यवहारमें बहुत ही संकीर्ण होते हैं। गुजरात जैन समाजकी तरह वहां पर, अभी तक सामाजिक सुधारकी कोई हवा नहीं पहुंची है। मुर्शिदाबादवाले सिवा अपने समाजके अथवा मारवाडी समाजके, कहीं विवाह सम्बन्ध करते हों या कर सकते हों, इसकी मुझे पूरी शंका थी । सो श्रीप्रतापसिंह भाईका उक्त प्रस्ताव सुन कर पहले तो मैंने उनसे यों ही कह दिया कि "इस विषय में मैं कुछ नहीं जानता और मेरा उनके साथ इस प्रकारका कोई सम्बन्ध नहीं है ।' पर सेठ तो बहुत अनुभवी, बडे व्यवहारचतुर और दुनियादारीके पूरे निष्णात रहे, सो कहने लगे कि - 'आप यों ही सिंघीजीको लिखिये तो सही । लिखने में क्या हर्ज है। यह तो एक गृहस्थके सामान्य व्यवहारकी बात है । हम लोग तो ऐसी बातें सदा ही किया करते हैं । अपनी सन्तानके विवाह सम्बन्ध में हमको तो बीसों जगह करना पडता है । यदि उनको पसन्द नहीं होगा तो वे ना लिख देंगे। इससे हमको कुछ बुरा थोडा ही लगनेवाला है। हमारा और उनका वैसा कोई सम्बन्ध नहीं है।
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