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६२] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [ तृतीय
यहां आये थे और ता. ९. ४२ को वापस बनारस चले भी गये हैं । उनके साथ जो परामर्श करना था वह आपके दोनों पत्र सामने रख करके कर लिया है। जैसा आपने सूचित किया है उसके अनुसार मुन्शीजीवाला पत्र भी आप ही को भेज रहा हूँ । आप पढ़ लीजिये तब उन्हें दे दीजियेगा । उनके पत्रमें जो कुछ जरूरी लिखना रह गया हो तो आप उसमें मेरी तरफ से पूर्ति कर सकते हैं । और कोई नई बात दाखिल करनी सूझ पड़े तो आप उसमें दाखिल कर सकते हैं। जो घटी बढ़ी होगी वह आपके द्वारा मुझको मालूम तो हो ही जायगी ।
संस्थाका सवाल है और एक्झीक्यूटीव बॉडी में पास करा लेना है । इसलिये शुरू में थोड़ा लिम्ब हो जाना स्वाभाविक है ।
अगर आपके नये सुझाव पत्रमें दाखिल करके यहींसे श्रीमुन्शीजीको भेजना हो तो आपका पत्र आने के बाद यहाँसे दूसरा पत्र श्रीमुन्शीजीको भेजा जा सकता है। आपको 'तो मैं अपने बीच हुई बातचीतके अनुसार मूल सिद्धान्त ही लिख देता हूँ । ब्योरेकी बातें श्री मुन्शीजी पत्रमें लिखता हूँ । संस्था और सिरीझके नये सम्बन्ध तथा भावी सम्बन्धकी दृष्टिसे आपको और भी ब्योरेकी बातें सूझ सकती हैं, क्यों कि आपको हमारा और उस संस्थाका दोनोंका अनुभव है । श्रीमुन्शीजीने अपने पत्र में "सिंघी जैन ज्ञानपीठ" का जो निर्देश किया था उसका भाव पहले पूरा ध्यानमें आया न था; पर आपके दूसरे पत्रके विस्तृत वर्णनसे ध्यान में आ गया। अपने बीच जो और जैसी बात हुई है उसके अनुसार मेरा एकमात्र विचार “सिंघी जैन सिरीझ" चलानेका तथा उसकी गति जितनी आप बढ़ा सकें बढ़ानेका है। अभी मैं “सिंघी जैन ज्ञानपीठ" की स्थापना और उसके निर्वाहका प्रश्न मेरे जिम्मे नहीं लेना चाहता । आगे थोड़े अनुभव के बाद और दूसरी दूसरी परिस्थितियों को देख कर, अवसर आया तो उस पर विचार किया जायगा । अभी तो आपका और मेरा सारा बल सिर्फ “सिंघी जैन सिरीझ" की ओर लगे यही मेरा संकल्प है। सिरीझमें प्रकाशित होनेवाली पुस्तकोंके लिये जितना और जो कुछ प्रेस, कागज आदिका खर्च आवेगा वह करना मुझे मंजूर है । इसके सिवाय आपको सहायक रूपसे आदमी या आदमियोंकी जरूरत हो उसके वास्ते भी मैंने आपसे कह ही दिया है । सुयोग्य आदमी जिससे आपका बोझ कुछ कम हो और प्रकाशनकी गति अधिक बढ़े उसके लिए थोड़ा और भी ज्यादह खर्च करना पड़े तो आपके लिखने से वह भी मुझे मंजूर होगा । कामकी गति और फेलाव बढ़ाने के लिए जुदे जुदे सम्पादक आपको पसन्द करने होंगे और उनका जो समुचित एडिटिङ्ग चार्ज होगा वह आपके लिखे या मंजूर किये अनुसार देना मुझको मंजूर होगा । परन्तु इस विषय में इतना तो स्पष्ट कर देना इस मौके पर और जरूरी है कि कहीं ऐसा न हो कि सिरीझका सम्पादन कार्य तो उन सबएडिटरों ( Sub-editors ) के हाथमें ही रहे और आपकी निजकी कृतियाँ " भारतीय विद्या" या दूसरे किसी मासिक पत्र- • पत्रिकाओं में निबन्धके रूपमें या पुस्तक के रूपमें प्रकाशित हो कर उनके महत्त्वको बढ़ाती रहे । इसको थोड़ा और भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है; इतने दिनों तक तो आपका सम्बन्ध " सिरीझ " से और "भारतीय विद्या भवन" से अलग अलग रूपमें था और अलग अलग नाते दोनोंका काम आपको करना पड़ता था और करना उचित भी था। अब जब सिरीझको “भारतीय विद्या
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