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७४ ] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय बंबईकी यह उनकी अन्तिम यात्रा थी। ६-७ दिन वे यहां पर इस समय रहे थे। बहुतसा समय प्रायः उनका मेरे और पण्डितजीके सहवास ही में व्यतीत होता था और हमारे बीचमें अनेक प्रकारकी बातेंचीतें होती रहती थीं। जेसलमेरके मेरे साहित्यिक और सांस्कृतिक आदि कार्यकी पूरी हकीकत तथा वहांके मेरे विविध अनुभव सुम कर बडे खुश हुए और उन सब बातोंका एक विस्तृत वर्णनात्मक प्रबन्ध लिख कर यथाशक्य शीघ्र छपा देनेका मुझसे सविशेष अनुरोध किया। . भवनकी दिनप्रतिदिन होती हुई प्रगतिको देख कर उनको खूब सन्तोष हुआ और बोले कि 'इस कार्यको देख कर हमारा भी मन होता है कि हम भी सालभरमें कुछ महिने यहां बंबई आ कर रहें और आपलोगोंके सहवासमें अपना समय भानन्दमें व्यतीत करें। हमें कलकत्तेमें अब और किसी प्रकारका तो कोई बंधन है नहीं। सिर्फ मांका हमें एक विशिष्ट बन्धन है। जब तक वह बैठी है तब तक हम उनको छोड कर कहीं अधिक दिन रह नहीं सकते। जिस दिन मां न होगी उस दिन फिर हम सर्वथा बन्धनमुक्त हैं।' बोरीबन्दर स्टेशन पर जब मैं उनको पहुंचाने गया तब उन्होंने अपना यह भाव प्रकट किया था। परन्तु इसके विपरीत, क्रूर कालके मनमें क्या था इसकी किसीको कल्पना थोडी ही थी। कलकत्ते पहुंच कर उन्होंने अपने कुशलसमाचार सूचक निम्नलिखित पत्र लिखा ।
सिंधीपार्क बालिगंज, कलकत्ता
ता. १६, मई. १९४३ “सविनय प्रणाम. हम परसों तीन बजे यहां पहुंचे। रास्तेमें गरमीका तो कहना ही क्या? आज अजीमगंज जा रहे हैं।
श्रद्धेय श्रीपण्डितजीको मेरा सविनय प्रणाम निवेदन करियेगा। उनकी तथा आपकी तबियत ठीक होगी। आप लोगोंके साहचर्यमें हमारे दो-तीन रोज बडे आनन्दसे निकल गये, नहीं तो हम शादीके दूसरे ही रोज भागनेवाले थे। मुन्शीजीको भी कल एक पत्र लिखा है। सं० २०००, वैशाख सु० १३"
आपका विनीत
बहादुरसिंह सिंघीजीका हाथका लिखा हुआ अन्तिम पत्र इसके बाद ता. ११.८. ४३ का लिखा हुआ सिंघीजीका एक पत्र मुझे मिला
जिसमें उन्होंने खास करके जेसलमेरमें मैंने जो अन्यभण्डारका अन्वेषणकार्य किया उसका विवरणात्मक एक प्रबन्ध लिख कर उसे 'भारतीय विद्या' पत्रिकामें प्रकाशित करनेकी अपनी विशिष्ट इच्छा प्रदर्शित की थी। एक प्रकारसे सिंघीजीका मुझ पर यह अन्तिम पत्र था। इसके बाद उनके खुदके हाथका लिखा हुआ कोई पत्र मुझे नहीं मिला। हालांकि उसके बाद दो दफह उनसे प्रत्यक्ष भेंट हुई थी। वह पन्न इस प्रकार है
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