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वर्ष ]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [७७ सरह यह कार्य सिद्ध किया जाय उसके लिये आप उद्योग करें।' सिंघीजीको उक्त लाईब्रेरीका कुछ पूर्व इतिहास मालुम था और बहुत वर्षों पहले स्वयं उन्हींको उसके ले लेनेके लिये, उसके मालिककी ओरसे एक प्रस्ताव भी उनके पास पहुंचा था। परन्तु सिंघीजीको स्वयं उसका कुछ उपयोग नहीं था इसलिये उन्होंने उसके लेनेकी भावश्यकता नहीं समझी। उस समय तो उसकी कीमत आधेसे भी कम दामोंवाली कही गई थी-अर्थात् २०-२५ हजारके करीब। इस तरहकी बहुतसी बातें उन्होंने मुझको सुनाई और फिर अब उसकी कीमत आदिका ठीक अन्दाजा किस प्रकार लगाया जा सके, उसके लिये वे उपाय सोचने लगे। दो एक दिनमें वहांके अन्यान्य विद्वान् मित्रों द्वारा उसका कुछ उपयुक्त आभास हमको प्राप्त हो गया और फिर मैं स्वयं उस लाईब्रेरीको प्रत्यक्ष देखने और उसके मालीकसे बातचीत करने गया। एक-दो दिन तक मैंने लाईब्रेरीकी सब किताबें खूब ध्यानपूर्वक देखीं और उनकी आनुमानिक गिनती की। इस तरह जब यह पूर्वभूमिका तैयार हो गई तो फिर उन प्रोफेसर महाशयको सिंघीजीके वहां एक दिन दोपहरको चहा पीने के निमित्त मैंने आमंत्रित किया। उसकी अगली रात्रिको फिर सिंघीजीके साथ बैठ कर उसकी कीमत आदिके विषयमें हमने विचार कर लिया। सिंधीजीने पूछा- 'आपके ध्यानमें इसका कितना अन्दाजा आता है ?' मैंने कहा- 'कोई ३५ से ४० हजार तककी कीमत इसकी ठीक हो सकती है और उतनेमें मिले तो जरूर ले लेनी चाहिये । इसमें कुछ २-४ हजार शायद ज्यादह भी जाते मालुम देते हों, तो भी एक अच्छे विद्वानका दीर्घज्यापी जीवनमें किया हुआ उत्तम ग्रन्थसंग्रह है और ऐसे संग्रह इच्छित समय पर मिलने बहुत दुर्लभ होते हैं, इसलिये इसे ले लेनेकी मेरी उत्कट अभिलाषा है।' फिर सिंधीजीने उसकी रकमके बारेमें भवनने क्या प्रबन्ध किया है, इसके विषयमें पूछा, तो मैंने कहा- 'अभी तक तो वैसा कोई खास प्रबन्ध नहीं किया गया है। परन्तु मुंशीजीकी और मेरी श्रद्धा एवं आशा है कि आप जैसे भवनके हितैषी दाताओंसे याचना करने पर वह रकम मिल ही जायगी। और अभी तो मैं कोरा चेक ले कर आपके पास यहां आया हूं जितनी भी रकम यहां देनी पडे, उसे इस चेकमें आपको भरना है और भारतीय विद्या भवनके नामे मांडना है।' सुन कर सिंधीजी जरा मुस्कराये और बोले- 'एक तो इसके लेने करनेकी महेनत भी हम करें और फिर ऊपरसे उसके लिये रूपयाकी व्यवस्था भी हम ही करें। यह बडा अच्छा रोजगार आप हमें बतला रहे हैं।' फिर मैंने उनसे लाईब्रेरी अथवा ग्रन्थभण्डार, किसी मनुष्यके लिये, एक कैसा उत्तम स्मारक है और वह कितना पवित्र एवं पुण्य कार्य है इस पर कितनीक प्रसङ्गोचित चर्चा की। फिर मैंने अन्तमें उनसे यह प्रस्ताव किया कि आपने अपने पिताजीकी पुण्य स्मृतिके लिये तो 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' जैसी जगत्प्रसिद्ध स्मारक वस्तुका निर्माण कर उनके नामको अमर कर दिया है। परन्तु अपनी पूजनीया माताजीकी स्मृति निमित्त तथा प्रिय धर्मपत्नीके पुण्यश्रेयार्थ, अभी तक कोई वैसा कार्य नहीं किया जिसके साथ उनके नामकी सुमधुर स्मृति संलग्न हो। इन दोनोंके नामस्मारकके निमित्त कोई विशिष्ट वस्तुका निर्माण आपको अवश्य करना चाहिये । अगर ऐसी उत्तम लाईब्रेरी जैसी पवित्र चीजके
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