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श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [८५ सिंह, श्रीनरेन्द्रसिंह तथा श्रीवीरेन्द्रसिंह-तीनों भाईयोंके हस्ताक्षर अंकित अपने पुण्यश्लोक पिताजीके दुःखद स्वर्गवासका शोक-पत्र भी मुझे प्राप्त हुआ। कहनेकी भावश्यकता नहीं कि यह शोक-समाचार मेरे हृदयको असाधारण रूपसे व्यथित करनेवाला हुआ। यद्यपि एक-न-एक दिन यह दुःखद समाचार मुझे मिलने वाला है इसका आभास मुझे बीच-बीच में होता रहता था । परन्तु पिछले दो-ढाई महिनोंसे मुझे कलकत्तेसे वैसी कोई गंभीर बीमारीकी खबर मिली नहीं थी और मैं कुछ ही दिनों में वहां जानेकी सोच रहा था । इससे इस प्रकार, अकस्मात् , मुझे उनके एकदम दिवंगत होनेकी ही ऐसी अनिष्टानिष्ट खबर मिलेगी, इसके लिये मैं सावचेत न था। मैंने अपने हृदयको बहुत संभाला, पर वह ऐसे सहृदय स्नेहीजनके शास्वत वियोगको, उदासीन भावसे सहन कर सके, वैसा विरक्त, शुष्क या कठोर न होनेसे उसने बहुत कुछ क्लेशानुभव किया। मेरे साहित्यिक जीवनके सबसे बडे प्रोत्साहक, सुकुशल परीक्षक, अनन्य सहायक, अकृत्रिम प्रशंसक और सहृदय संवेदकके, राजाके जैसे गौरवगरिमावाले जीवनकी समाप्तिके दारुण आघातका संवेदन कर, कई दिन तक मैं व्यथित और विमनस्क बन रहा । अपने प्रिय बन्धुजनोंके जीवन वियोगमें मनुष्यको और कुछ करनेकी प्रकृतिने शक्ति ही क्या दी है !
समाप्ति सिंघीजीके साथके मेरे संस्मरणोंकी यहां पर समाप्ति होती है। इस निबन्धमें मेरा उद्देश्य, उनके गौरवमय जीवनका संपूर्ण परिचय देना नहीं है। इसमें तो मेरा उद्देश सिर्फ उनके साथ, पिछले १४-१५ वर्षों में मैंने स्वयं उनकी उदारता, साहित्यानुरागिता, संस्कारिता, बुद्धिमत्ता, कार्यनिष्ठा, कर्तृत्वशक्ति, कलारसिकता, समाजहितैपिता, विद्याप्रियता- इत्यादि अनेकानेक सद्गुणोंका जो प्रत्यक्ष परिचय पाया, उसीका प्रसङ्गवर्णन करनेका है। .. इस परिचयसे ज्ञात होगा कि बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी एक महान व्यक्तित्ववाले पुरुष थे। उनका जैसा उत्तम शरीर - सौंदर्य था वैसा ही उदार हृदय सौंदर्य था। आकृति और प्रकृतिसे वे एक राजाके समान तेजस्वी पुरुष थे। मुझे कलकत्तेमें एक विद्वान् मित्रने एक दफह कहा था कि-'सिंघीजीको जन्म किसी राजघराने में लेना था, परन्तु, पूर्वजन्ममें तपस्या में कुछ न्यूनता रह जानेसे अथवा किसी प्रकार कुछ योगभ्रष्ट हो जानेसे, उनको इस प्रकार एक सामान्य वैश्यके कुलमें जन्म लेना पडा है।' उनका रहन-सहन, बोल-चाल, खान-पान, दान-मान आदि सभी बातें राजाकीसी थीं। उनकी प्रकृति में वैश्यवृत्तिका प्रायः अभाव था ।
यद्यपि सम्मान उनको प्रिय था, लेकिन उसको प्राप्त करनेके लिये उन्होंने चलाकर कभी कोई प्रयत नहीं किया। उनका स्वभाव एकान्तप्रिय था इसलिये वे अपने आप किसी सभा, समाज या समूहमें हिलने-मिलनेकी प्रवृत्ति करना ज्यादह पसन्द नहीं करते। कोई खींच कर उनको ले जानेका प्रयत्न करता तो वे सरल भावसे चले जाते । परंतु जिसके साथ उनका दिल मिल जाता उसके साथ वे संपूर्ण एकरस हो जाते थे।
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