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७६ ] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [ तृतीय
मुंशीजी भवनके पास ऐसी अच्छी लाईब्रेरीके होनेकी शंखना इसके जन्मदिनसे ही कर रहे थे और यथेष्ट उद्योगमें भी रहते थे । अतः जब उक्त विद्वानने अपनी लाईब्रेरीके बारे में मुंशीजी से बात की तो इनका मन एकदम उसको लेनेके लिये उत्कंठित हो गया और उनको कह दिया कि - 'मुनिजीके आने पर उनसे परामर्श करके हम आपकी लाईब्रेरीको ले लेनेका प्रयत्न करेंगे।' मेरे आने पर मुंशीजीने इस विषयका जिक्र किया तो मैंने भी उसको हस्तगत कर लेनेकी तीव्र उत्कंठा बतलाई । लेनेका निर्णय किया जाय, उसके पहले उक्त विद्वान् महाशय के पाससे पुस्तकों का लीस्ट मंगा कर देख लेना उचित मालुम दिया और उनको लीस्ट भेज देनेके लिये लिखा गया । परन्तु ३-४ महिने व्यतीत हो जाने पर भी, और २-४ पत्रादि लिखने - लिखाने पर भी, उनकी भोरसे जब लीस्ट नहीं मिल सका, तब आखिर में यह तय किया गया कि मैं खुद कलकत्ते चला जाऊँ और उस लाईब्रेरीको प्रत्यक्ष आँखोंसे देख कर, उचित जंचे तो उसका सोदा कर डालूं । सिंघीजी वहां थे ही; इससे मुझे इस विषय में उनसे यथेष्ट सहायता मिलने की पूरी संभावना थी । क्यों कि उक्त विद्वान् मेरे भी पूर्वपरिचित थे और सिंघीजीके साथ भी उनकी अच्छी जानपहचान थी । जानेके पूर्व मैने सिंघीजी को इस बारे में थोडीसी पत्र द्वारा पूर्व सूचना भी दे दी ।
उन दिनों कलकत्ता युनिवर्सिटीमें भी एक जैन चेयर स्थापित करनेके लिये, युनिवर्सिटीके प्रधान पुरुष डॉ. श्यामाप्रसाद मुकर्जी एवं संस्कृत विभागके मुख्य - आचार्य म. म. श्रीविधुशेखर शास्त्री, सिंघीजीसे प्रेरणा कर रहे थे और इस विषय में शास्त्री महाशय ने मुझको तथा खास करके पण्डितजी सुखलालजीको पत्रादि लिख कर हम लोगों से भी सिंघीजीको प्रोत्साहित करनेकी एवं यथायोग्य अन्य प्रकारकी आवश्यक सहायता प्राप्त करानेकी अभिलाषा व्यक्त की थी । शास्त्री महाशयका प्रस्ताव था कि सिंघीजी उस चेयरके स्थापित करनेका प्रारंभिक अर्थभार उठावें और पण्डितजी उसके प्रथम अधिष्ठाता बन कर उसके संचालनका भार उठावें, तो पीछेसे कामके जम जाने पर, युनिवर्सिटी भी स्वयं उसके अर्थभारको उठा लेनेके निमित्त प्रयत्न करना अपना आव इक कर्तव्य समझेगी। सिंघीजीने इस प्रस्तावके बारेमें अपना कुछ मनोभाव प्रकट किया कि यदि पण्डितजी जो इस प्रस्तावित चेयरके संचालनका काम अपने हाथ में लेनेका विचार करें तो वे उसके लिये प्रारंभिक आर्थिक भार उठाने का विचार करनेको स्वयं तत्पर हो सकते हैं । सो इस विषय में कुछ विचार-विनिमय करनेके लिये सिंघीजीने पण्डितजीको भी मेरे साथ कलकत्ते आनेका आमंत्रण दिया था । अतः हम दोनों साथ ही बम्बई से ता. १६ सप्टेंबरको कलकत्ताके लिये रवाना हुए ।
हम कलकत्ता पहुंचे उसके ४-५ दिन पहले ही सिंघीजी भी अजीमगंजसे वहां पर कार्यवश आ पहुंचे थे। इससे उद्दिष्ट कार्यके संबंधका वार्तालाप उसी दिनसे प्रारंभ हो गया। मैंने उनसे उक्त लाईब्रेरीके विषय में इतः पूर्व जो पत्रव्यवहारादि हुआ था उसका सब हाल सुनाया और कहा कि - 'मैं तो ऐसी बातोंके लिये वैसा व्यवहारकुशल (प्रेक्टीकल ) हूं नहीं, परन्तु आप इसमें पक्के निष्णात हैं और आपसे मुझे इस कार्य में यथेष्ट सहायता मिलने की पूरी श्रद्धा होनेसे ही मैं यहां पर आया हूँ । अतः किस
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