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७८] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय साथ इनमेंसे किसी एकके नामका संयोजन हो तो उससे बढ़ कर अन्य कोई श्रेष्ठ स्मारक नहीं होगा!' इत्यादि । सुन कर वे बहुत देर तक चुप रहे। उनकी मुखाकृतिसे मुझे मालुम हुआ कि वे मेरे कथन पर कुछ गंभीर भावसे अपने अन्तरमें विचार करने लग गये हैं। कोई दस मिनीट बाद वे बोले - 'आपने इन दोनों नामोंके स्मारकके विषयमें जो अभी कहा, उस पर कुछ जरूर विचार करने जैसा, हमारे मन में इसी क्षण कुछ खयाल पैदा हुआ है। पत्नीके एक स्मारक निमित्त तो हमने कोई १५००० रूपये, यहां पर जो जैन भवन बननेवाला है, उसमें दिये हैं और बाकी तो उसकी स्मृतिके लिये विशिष्ट कार्य करना उसके बेटोंका (अर्थात् अपने पुत्रोंका) कर्तव्य है। परन्तु, हां, अपनी मांके लिये कुछ करना यह हमारा फर्ज है। आप कोई ऐसी योजना विचार करके हमसे कहिये जिससे उस पर हम विचार करते रहें।' यों बातें चीतें करते करते कोई रातके १२ बज गये और फिर सोनेके लिये उठे। अन्तमें मैंने कहा 'तो मेरा चेक भरना आपने मंजूर कर लिया है न?' जरा स्मित करके बोले 'देखा जायगा; अगर आपको कोई नहीं मिला तो फिर हम तो है ही। परन्तु, महेरबानी करके अभी किसीसे इस बातकी चर्चा न करियेगा और उन प्रोफेसर महाशयको तो ऐसा बिल्कुल आभास न होने दीजियेगा कि यह लाईब्रेरी हम खरीद रहे हैं। वरना वे अपनी कीमत और भी बढा कर कहेंगे और हमसे ५० के बदले ६० मांगेंगे।'
दूसरे दिन ठीक ४ बजे वे प्रोफेसर चहा पीनेके लिये आये। सिंधीजी, मैं और वे तीनों एक टेबिल पर बैठे और फिर चहा पीनेके साथ लाईब्रेरीकी कीमतका विचार चला। प्रोफेसर साहबने ५० हजारसे कुछ भी कम लेना स्वीकार न किया। सिंधीजीने पहले ३५ हजार और फिर आखिरमें ४० की ऑफर की और उनको उन पुरानी बातोंका भी स्मरण दिलाया; परन्तु वे राजी न हुए और सौदा न बैठा। सिंधीजी मुझे एकान्तमें ले जा कर बोले- 'आपका क्या विचार हैं ? ये माननेवाले दिखाई नहीं देते । यदि आपको बहुत जल्दी नहीं है तो कुछ दिन अभी ठहर जाइये और यहां पर स्त्र. पूरणचन्दजी नाहारकी जो लाईब्रेरी है उसे भी देख लीजिये। अगर आपको वह ठीक कामकी मालुम दी तो हम उसके दिलानेका प्रयत्न कर, इतनी ही रकममें उसे दिला देंगे। हमारे खयालमें वह लाईब्रेरी इससे भी बहुत अच्छी है और आपको इतनी ही कामकी मालुम देगी' वगैरह वगैरह । चूं कि नाहार लाईब्रेरी तो मेरी बहुत पहलेसे
और खूब अच्छी तरह देखी हुई थी ही, इससे मैंने कहा- 'यदि वह लाईब्रेरी जो मिल सकती हो तो फिर मैं इसके लेनेकी बिल्कुल इच्छा नहीं करना चाहता।' सो इस तरह उस समय वह बात खत्म हुई और मैंने उक्त प्रोफेसरकी लाईबेरी लेनेका विचार स्थगित किया। नाहार लाईब्रेरी लेनेके विषयमें प्रयत्न करनेका काम सिंधीजीने अपने ऊपर लिया और उसमें कुछ समयकी दरकार होगी इससे मैंने बंबई जानेका अपना कार्यक्रम निश्चित किया।
सिंघीजीका मेरे साथ जैसा इधर लाईब्रेरीके विषयमें विचार-विनिमय होता रहता था, उधर वैसी ही पण्डितजीके साथ कलकत्तायुनिवर्सिटीमें जैन चेयरकी स्थापनाके बारेमें चर्चा होती रहती थी। इस सिलसिले में म. म. श्रीविधुशेखर शास्त्री आदिका भी
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