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वर्ष]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [७१ - यों, ज्यों ज्यों मेरी दाढी बढती गई त्यों त्यों (शायद उसीके प्रभावले हो) जेसलमेरमें मेरी ख्याति भी बढती गई। इसके परिणाममें, एक दिन मुझे श्रीमान् महारावलजीकी ओरसे, मिलनेके लिये सादर आमंत्रण देनेको, श्रीमानके प्राइवेट सेक्रेटरी, मेरे डेरे पर आ उपस्थित हुए । छत्रपतिकी आज्ञाका पालन करना मेरा कर्तव्य हुआ और दूसरे दिन मैंने राजमहल में उपस्थित होनेकी इच्छा प्रदर्शित की । बिचारी दाढी पर संकट आ गया। क्यों कि उस विचित्र सूरतमें श्रीमान् महारावलजी जैसे राज्याधिपतिसे मिलने जाना मुझे असांस्कारिक लगा। 'विनीतवेषेण प्रवेष्टव्यानि राजद्वाराणि' इस राजनीतिशास्त्रकी शिक्षाका सरण करते हुए, मैंने उसी दिन, नापितको बुला कर उस दाढीका वपन कराया और इस तरह फिर मैंने अपनी उस असली सूरतको अपनाया।
जेसलमेरके ग्रन्थोंकी रक्षाके लिये सिंघीजीकी उदारता जेसलमेरके भण्डारमें जो ताडपत्रके ग्रन्थ रखे हुए हैं वे पुरानी पद्धतिके ढंगसे
"मामुली कपडेके बस्तोंमें बन्धे पडे हैं। उन पर जो लकडीकी पट्टियां दे रखी हैं वे भी बडी बेडोल और बिना मापकी हैं। पुस्तकोंके बान्धने छोडनेका कोई अच्छा इन्तजाम नहीं है। नाही कोई खास आदमी उस कामको करनेवाला है। जितनी भी दफह ये ग्रन्थ खोले जाते हैं उतनी ही दफह कुछ-न-कुछ पन्ने इनमेंसे इधर उधर होते रहते हैं और टूटते रहते हैं। एक पोथीके पन्ने दूसरी पोथीमें मिलते रहते हैं और इस तरह प्रायः बहुतसे ग्रन्थ त्रुटित बनते जाते हैं। मैंने यह हालत देख कर भण्डारके संरक्षकोंसे कहा, कि जैसे पाटन और खंभात वगैरह स्थानोंके ताडपत्रीय अन्थोंकी सुरक्षाके लिये, प्रत्येक ग्रन्थको अलग अलग लकडीकी अच्छी सुन्दर पेटीमें, ऊपर नीचे सफाईदार पाटली लगा कर रखनेका प्रबन्ध किया गया है वैसा ही इन अन्थोंके लिये करनेसे, इनकी रक्षा अच्छी तरहसे होगी और ये यों बुरी तरहसे नष्ट होनेसे बच सकेंगे। तब उन पंचोंने कहा कि- 'यह काम तो आप ही यदि कपा करके कर सकें तो हो सकता है। वरना हमारे तो सामर्थ्य के बहारकी यह बात है। कुछ दिन बाद तो वे फिर इस कामके करने - करानेका मुझसे खूब आग्रह ही करने लगे। श्रीमान् महारावलजीके जाननेमें यह बात आई तो उन्होंने भी मुझसे इस कार्यके करा देनेका सादर अनुरोध किया। तब मैंने सिंघीजीको इस विषयसें लिखा और भण्डारके ग्रन्थोंकी रक्षाके लिये उनकी ओरसे लकडीकी पेटियां आदि बना दी जाय तो वह भी एक बडा पुण्यदायक कार्य होगा और ग्रन्थों के प्रकाशनकी जितनी ही ग्रन्थोंके संरक्षणकी भी पूरी आवश्यकता है इसका उनको खयाल दिलाया। इसके उत्तरमें, उन्होंने तारसे मुझे उस कार्यको करने-करानेकी अपनी सम्मति भेजी। उसके खर्चके लिये मैंने कोई हजारेक रूपयोंका अन्दाजा लिखा था सो उन्होंने मंजूर कर लिया। जेसलमेरके संघने सिंघीजीकी इस उदारताके लिये उनको (ता. १२. ४. ४३) धन्यवादका एक सादर पत्र लिखा। सिंघीजीकी स्वीकृति मिलने पर मैंने वहांके सुथार मिस्त्रीको बुलाया और उसको नमूनेके लिये दो चार पेटियां बनानेकी कल्पना दी, तो वह बोला 'जिस सागकी लकडीकी भाप बात करते हैं उसका तो एक ४-- ६ इंच.
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