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७०] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय मेरा जेसलमेरका निवास सिंघीजी मेरे स्वास्थ्यकी शिथिलतासे अच्छी तरह परिचित थे इससे उनको हमेशा इस बातका खयाल रहता था कि कहीं उत्साहमें आ कर मैं अपनी शक्तिसे अधिक परिश्रम करने न बैठ जाऊं और बीमार न हो जाऊं। इसलिये वे हमेशां इस विषयमें मुझे सावधान किया करते थे। पर मेरी स्थिति इससे उलटी हो जाती थी। उनका इस प्रकारका अनन्य उत्साह और सद्भाव देख कर मेरा उत्साह और भी अधिक बढ जाता था और मैं अपने कार्यमें विशेषरूपसे व्यग्र हो जाता था। जेसलमेर जाने पर एक तो कोई महिने - डेढ - महिने बाद मुझे अपनी सुविधानुसार भण्डारका अवलोकन करनेकी सरलता प्राप्त हुई और फिर उसी समय सिंघीजीके ऐसे प्रोत्साहनदायक पत्र मिले। इससे मेरा मन अत्यधिक उत्साहित हुआ और मैं दिन-रात काम करने में व्यस्त हो गया। प्रातःकालके करीब ४ बजे उठ कर काम शुरू किया जाता था जो रातको १० बजे तक चलता रहता था। बीचमें खाने-पीने आदिके निमित्त कोई सब मिल कर दो घंटे अन्य कार्यमें व्यतीत किये जाते थे, बाकीका सब समय लेखन-संशोधनमें दिया जाता था।
वहां पर एक - एक बंटा भी मुझे एक - एक दिनके जैसा महत्त्वका लग रहा था। अपनी हमेशांकी आदतके मुताबिक मैं हर तीसरे चौथे दिन दाढी बनानेका आदी बना हुआ हूं। परन्तु इस तरह सप्ताहमें दो दिन दाढी बना कर, घंटा-डेढ घंटा उसके लिये खराब करना, वहां मुझे सहन न होने लगा। सो मैंने, कुछ जेलनिवासियोंकी तरह, दाढीका बनाना बन्ध कर उसका बढाना पसन्द किया। वह दिन रात बढने लगी प्रारंभमें मुझे अपना चेहरा कुछ विचित्रसा लगने लगा पर मैंने यह सोच कर समाधान कर लिया कि यहां जेसलमेरकी इस निर्जन मरुभूमिमें, कौन ऐसा जान पहचानवाला या मिलने जुलनेवाला विशिष्ट व्यक्ति मिलेगा जो मेरी इस नई दाढीके कारण दिखनेवाली विचित्र सूरतकी समीक्षा करना चाहेगा। इस प्रकार दो-ढाई महिने में तो मेरी दाढी ठीक ठीक बढ गई। मैंने उसका फोटू भी लिवाया और सिंधीजीको तथा अन्य मेरे निकटतम व्यक्तियोंको कौतूहलकी दृष्टिसे उसे देखनेको भेजा। सिंघीजीको उसे देख कर बड़ा कौतूहल हुआ और उन्होंने अपने एक पत्रमें लिखा कि आपने ठीक "जैसा देश, वैसा भेष" वाली कहावतको चरितार्थ करना
आरंभ किया है।' ___ + तब दिलमें यह भी खयाल आया कि यदि ४-६ महिने जो यह इसी तरह विना विघ्न बाधाके बढती रही, तो जब मैं वापस अपने स्थान पर पहुंचूंगा तब एक अच्छा दाढीवाला हो कर बुजुर्मकी हैसियतसे अपने स्नेहिजनोंके बीच, शायद और भी अधिक सम्मानका भाजन बन सकूँगा और फिर सदाके लिये यह जेसलमेरकी दाढी मेरी महत्ताको बढाती रहेगी। हर तीसरे-चौथे दिन उठ कर सेविंग करने का संकट टलेगा-ब्लेड वगैरहका खर्च मिटेगा। ये थे शेखचिल्लीकेसे ही विचार; पर इन विचारोंसे भी एक प्रकारका मनमें आनन्द आ रहा था और मेरे आनन्दका अनुभव लेने के लिये मेरे साथी अध्यापक श्रीयुत के, का. शास्त्री-जिनको अहमदाबादकी गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटीने, मेरे सहायकके रूपमें, मेरे साथ भेजा था-वे भी अपनी दाढी बढाने लगे।
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