________________
वर्ष]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य सरण. [६७ नहीं है, परन्तु एक बातका यहां उल्लेख करना मुझे अवश्य कर्तव्य है और वह हैजेसलमेराधिपति यदुकुलतिलक महाराजाधिराज श्री श्रीमान् जवाहरसिंहजी महारावलजीने मेरे प्रति जो अपूर्व सद्भाव बतलाया उसके लिये उनके प्रति अपना कृतज्ञभाव प्रकट करना । श्रीमान् महारावलजीने जिस आदर, सौजन्य और प्रेमसे मेरा आतिथ्य किया और मुझे अपना एक आत्मीय जनसा मान कर मेरे प्रति वात्सल्यभाव दिखलाया वह मेरे जीवनकी एक अद्वितीय प्रियतर स्मृति है। जेसलमेरके भण्डार आदिका वर्णनवाला एक इतिहासात्मक स्वतंत्र निबन्ध लिखनेका अनुरोध मुझसे सिंधीजीने उसी समय किया था और उसके लिये मैंने उनसे वचन भी दिया था। उस निबन्धमें जेसलमेरका संक्षिप्त इतिहास, वहांके जैन मन्दिरों एवं जैन ज्ञानभण्डारोंका विस्तृत वर्णन तथा अन्यान्य ऐतिहासिक स्थानोंका परिचय-इत्यादि बातोंके साथ, जेसलमेराधिपति श्रीमान् महारावलजीके सौजन्यशील व्यक्तित्वका कुछ परिचय देनेकी एवं उन्होंने मेरे प्रति जिस जिस प्रकार परम सद्भाव प्रदर्शित किया और वहांके निवास समय जिस तरह मेरा स्नेहपूर्ण आतिथ्य किया, उसका विशेषरूपसे उल्लेख करनेकी मेरी अभिलाषा थी । परन्तु अवकाशाभावसे सिंधीजीकी उस इच्छाका पालन मैं शीघ्र न कर सका और उस निबन्धके देखनेकी आशा ही में वे चल बसे, जिसका आज मुझे बडा खेद हो रहा है।
जेसलमेर जानेकी सिंघीजीको खबर मिलना __ मैंने इस प्रकार अकस्मात् जेसलमेर जानेका और वहांके भण्डारका अवलोकन करनेका कार्यक्रम जो निश्चित किया उसकी सिंघीजीको पहले कुछ भी खबर नहीं दी थी। मैंने सोचा था कि जेसलमेर जाने पर वहां कुछ अपने कार्यमें सफलता मिले तो फिर उनको इसकी खबर दूं, वरना यों ही खबर देनेसे उनको क्या प्रसन्नता होगी।
सो प्रायः डेढ-पोनेदो महिने तक तो मैंने उनको इस विषयमें एक अक्षर भी नहीं लिखा । मैं बंबई हूं या अहमदाबाद हूं इसका भी उनको पता नहीं था। परन्तु, मैं अपनी प्रवृत्तिके समाचार बीच-बीचमें पण्डितजीको बनारस लिखता रहता था, सो पण्डितजीने मेरे जेसलमेरके कुछ पत्र प्रसङ्गोपात्त सिंधीजीको अजीमगंज पढने भेज दिये । इससे उनको यह सब हाल मालूम हुआ और उससे उनकी जिज्ञासा बढी कि मैं कब जेसलमेर जा पहुंचा और वहां जा कर किस तरह भण्डारका अवलोकन करना शुरू किया एवं उसके करनेमें मुझे कैसा अनुभव प्राप्त हो रहा है -इत्यादि । क्यों कि वे भी कुछ वर्ष पहले जेसलमेरकी यात्रा कर गये थे और उस भण्डारके ऊपर ऊपरसे दर्शन भी कर चुके थे। वे स्वयं बडे चतुर निरीक्षक थे इसलिये उनको भण्डारकी अव्यवस्था आदि देख कर मनमें खेद ही हुआ था। सो उन्होंने अपना अनुभव और मनोभाव बतलानेके लिये स्वयं अजीमगंजसे ता. ५. १. ४३ को अच्छा लंबासा, नीचे दिया हुआ, मुझे पत्र लिखाश्रद्धेय श्री मुनिजीकी सेवामें,
५. १.४३ सविनय प्रणाम । बहुत दिनोंसे आपका कोई पत्र नहीं। आपने कब जेसलमेर जानेकी ठान ली यह भी मुझे मालूम नहीं। पंडितजीके पत्रसे मालूम हुआ कि आप वहाँ जा
1 इसका जिक्र सिंघीजीने मेरे परके अपने अन्तिम पत्रमें भी किया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org