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६०] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय ' 'भारतीय विद्या भवन' के अन्धेरीवाले विशाल मकानमें (जिसको पीछेसे मिलीटरीने युद्धविषयक परिस्थितिके कारण अपने लिये मांग लिया), सबसे ऊपर एक बड़ा हॉल बनानेकी हमारी कल्पना थी जिसमें प्राचीन वस्तुओंका म्युजियमके रूपमें संग्रह करनेका मेरा लक्ष्य था। उसके लिये मैंने उनसे १० हजार रूपयोंकी याचना की तो उसका उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ स्वीकार किया।
बनारसमें पण्डितजीका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था और मेरी इच्छा हो रही थी कि पण्डितजी अब बनारस छोडकर बंबई या अहमदाबाद ही में आ कर रहें । सो सिंधीजीने पण्डितजीके लेखक-वाचकके खर्चके लिये भी, सदाके लिये, अपनी ओरसे आवश्यक सहायता देनेका पूर्ण उत्साह प्रदर्शित किया और उसके लिये मेरा जितना भन्दाजा था उससे कहीं अधिक ही देनेका उन्होंने निर्णय किया।
इस प्रकार वहांका सब काम समाप्त होने पर, मैं सिंधीजीकी अनुमति लेकर, ता. ७ ऑगष्टको अजीमगंजसे बनारसके लिये रवाना हुआ। उसके दूसरे ही दिन बंबई में काँग्रेसकी वह ऐतिहासिक महासमितिकी बैठक होनेवाली थी और उसमें देशके भाविके विषयमें कोई महत्त्वका निर्णय होनेवाला था। इससे सारे देशका वातावरण एक प्रकारसे क्षुब्धसा हो रहा था। सरकार सब जगह अपनी दमन-नीतिकी पूरी तैयारी कर रही थी । जानकार लोगोंने अनुमान कर लिया था कि सरकार काँग्रेसके सभी छोटे-बड़े कार्यकर्ताओंको जेलमें ढूंसनेका इन्तजाम कर रही है। सिंधीजी जानते थे कि श्रीमुंशीजीका और मेरा भी सरकारके केदखानेके दफ्तरोंमें नाम दर्ज हुआ पडा है, इसलिये संभव है कि उस पुराने लीष्टके मुताबिक हमको भी वह अपना महमान बनावे । 'बिना ही कुछ उपयुक्त काम किये यदि वह ऐसा करे तो उसके लिये कोई ननु-नच करनेका अवकाश नहीं है, पर यदि काम करनेवालोंही को वह अपनी महमानगिरिका सम्मान देना चाहती हो, तो उस हालतमें हमें उस सम्मानके लिये उत्सुक नहीं होना चाहिये-ऐसा सिंघीजीका मुझसे अनुरोध था। क्यों कि वैसा होने पर, यह जो ग्रन्थमालाका भावी आयोजन सोचा गया है वह सब 'उलटपुलट' हो जायगा। इसकी उनको बडी आशंका थी । इसलिये उनसे विदा होते समय भी उन्होंने आखिरमें इस बातकी ओर पूरा लक्ष्य रखनेकी मुझसे विज्ञप्ति की। . ता. ८ ऑगष्टको मैं बनारस पहुंचा और पण्डितजीसे वहांका सब हाल सुनाया। ग्रन्थमालाके विषयमें जो विचार तय हुआ वह भी उनको विदित किया । सिंधीजीने मेरे साथ ही पण्डितजीको देनेका पत्र भेजा था सो भी उनको दिया गया । पण्डितजीके प्रति सिंघीजीकी कितनी उच्च श्रद्धा और समादर बुद्धि थी वह इस छोटेसे पत्रसे अच्छी तरह ज्ञात हो जाती है।
अजीमगंज, ७. ८.४२ श्रद्धेय श्रीपण्डितजी
सविनय प्रणाम. आपका पहलेका तीन पत्र हजम कर लेनेके बाद चौथा पत्र पा कर, उसी पत्रवाहकके साथ उत्तर भेज रहा हूं। शरीर स्वस्थ न रहनेके कारण कोई काममें दिल नहीं लगता, इसलिये पत्रोंका उत्तर यथासमय न दे सका, कृपया क्षमा करें।
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