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वर्ष ]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [ ५९
उन्होंने मुझे बहुत कुछ परिज्ञान कराया । जगत्सेठके घरानेकी जितनी बातें उनको ज्ञात थीं उतनी शायद आज तक अन्य किसीको ज्ञात नहीं हुई होंगीं । उनके पास ये सब बातें सुन कर मैंने उनसे कहा, कि 'बाबूजी, आपके पीछे इन सब बातोंका जाननेवाला शायद और कोई नहीं रहेगा । इसलिये अच्छा हो यदि आप अपनी इस जानकारी के नोटस् करके या किसीसे करवा करके कहीं छपवा दें । अथवा मुझे दें दें तो मैं उन्हें छपवाने की व्यवस्था कर दूं।' इस पर वे बोले 'हमसे खुदसे तो कुछ लिखा जा नहीं सकता । वैसा मानसिक स्वास्थ्य भी हमारा अब है नहीं । और कोई दूसरा हमारे मनके मुताबिक लिखनेवाला हमको मिलता नहीं ।' इत्यादि अनेक प्रकारकी चर्चा उनसे सतत होती रहती थी ।
फिर एक रातको जब उनका मन ठीक स्वस्थ था, तब हम दोनों शान्तिसे बैठे और 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के विषय में विचार-विनिमय करने लगे । मैंने ग्रन्थमालाके तब तकके कामका उन्हें सिंहावलोकन करा कर भविष्यका विचार उपस्थित किया । मैंने कहा- 'ग्रन्थमाला के संचालनका समग्र भार, अब तक मेरे अकेलेके व्यक्तित्व ऊपर ही निर्भर रहा है। स्टॉक सब अहमदाबादमें रहता है, जहां अब उसके रखने की विशेष जगहका अभाव है । मेरा रहना अधिक बम्बई होता है और शरीर भी न मालुम किस दिन जवाब दे सकता है। ऐसी हालत में ग्रन्थमालाकी स्थिति क्या हो ? इसलिये मैंने सोचा है कि उसका संयोजन 'भारतीय विद्या भवन' के साथ कर दिया जाय तो सब तरह से उचित होगा ।' फिर 'भवन' की स्थिति और श्रीमुंशीजीकी, अभिलाषा आदिका भी मैंने उनको यथायोग्य परिचय दिया । बनारस में पण्डितजीके साथ जो कुछ परामर्श हुआ उसका भी जिक्र किया । सब बातोंको शान्तिके साथ सुन कर वे बोले-' इस बारे में तो हमारे लिये आप ही सर्वथा प्रमाणभूत हैं । आपको अगर इस प्रकार भवनके साथ इसका संबन्ध जोड देना लाभदायक प्रतीत होता हो, तो हमको उसमें कोई आपत्ति नहीं है । आप अपनी सुविधा और सुव्यवस्था की दृष्टिसे जो कोई भी योजना हमें सूचित करेंगे वह हमको मंजूर होगी। हमारी तो एकमात्र अभिलाषा आपकी और हमारी हयाती में जितने भी अधिक ग्रन्थ प्रकाशित किये जा सकें उतने प्रकट हुए देखनेकी है। और फिर यदि बादमें भी इस ग्रन्थमालाका काम ठीक ढंग से चलता रहे तो वह अभीष्ट ही है । हमने अपने जीवनका सबसे बडा स्मारक इसी ग्रन्थमालाको माना है। और इसकी प्रगति के लिये जो भी योग्य योजना या व्यवस्था आप सूचित या निर्धारित करेंगे वह हमें स्वीकार्य होगी' इत्यादि ।
फिर भवनके साथ किस ढंगसे इस ग्रन्थमालाका सम्बन्ध जोडा जाय इसकी रूपरेखा सोची गई । साथमें, अबसे इसके प्रकाशनात्मक कामको और भी अधिक वेग देनेके लिये कुछ सहायक आदिका विशिष्ट प्रबन्ध करनेकी और उसके लिये यथेष्ट खर्च करने की भी उन्होंने अपनी इच्छा प्रकट की। सिंघीजीका इस समयका उत्साह मेरे लिये अतीव उत्तेजनात्मक था और उनके वैसे उत्साहको देख कर स्वयं मैं भी अधिक उत्साहित हो रहा था । कोई वार्षिक २० हजार तकका बजट अंकित किया गया ।
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