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५४] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय इन सब कारणोंसे बीच में मैंने बहुत बडे अर्से तक सिंघीजीको कोई पत्र तक नहीं लिखा और अपनी प्रवृत्तिके विषयमें उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं किया।
भारतीय विद्या भवनके साथ ग्रन्थमाला संलग्न कर देनेका विचार भारतीय विद्या भवन'की प्रवृत्ति और स्थिति श्री मुंशीजीके सतत प्रयास और
विशिष्ट प्रभावके कारण दिन प्रतिदिन उन्नति करती जाती थी और पिछले तीन-चार वर्षों में आर्थिक एवं संगठनकी दृष्टिसे उसने अच्छी दृढभूमि प्राप्त कर ली थी । मुंशीजी कभी कभी मुझसे प्रेरणा किया करते थे कि 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला'को यदि भवनके साथ संलग्न कर देनेका आप प्रयत्न करें तो इससे भवनकी प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा और भी अधिक बढेगी और आपको भी कुछ भावी निश्चिंतता प्राप्त होगी। मेरे दिलमें भी कभी कभी ऐसा विचार आता रहता था। कोई वर्ष डेढ-वर्ष इस विचार-मन्थनमें व्यतीत हो गया। फिर जब मेरा निश्चय हो गया कि ग्रन्थमालाको भवनके साथ संलग्न करनेसे इसका भविष्य अधिक स्थिर और कार्यशील बना रहेगा; तब मैंने, सिंघीजीको बडे अर्सेबाद, एक विस्तृत पत्र (ता. १२.३.४२ को) लिखा और उसमें अपने ये सब विचार संक्षेपमें सूचित कर, इस विषयमें प्रत्यक्ष विचार करनेकी दृष्टिसे उनसे मिलनेकी इच्छा प्रदर्शित की।
सिंधीजी भी इस बीचमें मेरा कोई पत्रादि न प्राप्त कर कुछ विचार निमग्न हो रहे थे । उनको भी शायद ग्रन्थमालाके भविष्यकी अनिश्चितताका कुछ भाभास हो रहा था । इसलिये मेरा उक्त पत्र प्राप्त कर उन्होंने भी वैसा ही एक विस्तृत पत्र मुझे लिखा और उसमें अपना मनोगत भाव, बडे सौजन्यके साथ, पर कुछ उपालंभके रूपमें, व्यक्त किया। सिंघीजीका यह पत्र मेरे लिये एक ऐतिहासिक पत्र है। इसने ग्रन्थमालाके भविष्यको नया रूप देनेके लिये भूमि तैयार की और मेरे मनको उसके लिये अधिक उत्सुक बनाया। सिंधीजीका कलकत्तेसे ता. २४.३.४२ का लिखा हुआ यह पत्र इस प्रकार हैश्रद्धेय श्री जिनविजयजी,
सविनय प्रणाम. आपका कृपापत्र ता. १२. ३. ४२ का अजीमगंज हो कर यहां मिला। हम कार्यवश यहां ४।५ रोजके लिये आये थे परन्तु १० रोज हो गया। अब शायद ४।५ रोज और भी ठहरना पड़े। बाकी परिवारके सब अजीमगंजमें हैं, यह तो आपको मालूम ही है। __ अहोभाग्य कि इतने दिनों बाद आपने मेरेको प्रत्यक्ष रूपसे याद किया और सिंघी ग्रन्थमालाके कार्यकी प्रगतिकी कुछ रूपरेखा सामान्य रूपसे अपने पत्रके द्वारा सूचित की। ग्रन्थमालाका कार्य प्रारम्भ हुआ था उस वक्त तो हरेक फर्मा छपने पर एक कापी मेरे पास आ जाया करती थी। इससे मालुम हो जाता था कि प्रेसमें क्या काम चालू है, और आपके पत्रोंसे यह विदित हो जाता था कि आगेके प्रकाशनके लिये कौन कौनसे पुस्तक पसन्द किये गये हैं और उस पर काम कितना आगे बढ़ रहा है। अब अवस्थाका इतना परिवर्तन हो गया है कि पुस्तकें छप कर बाईंडींग हो कर बाहर आ जाती हैं और मेरेको पता भी नहीं रहता है। मालम तब पडता है जब या तो उसकी मांग मेरे पास आती है
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