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वर्ष ]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [ ५५
या उसकी समालोचना कभी कभी पेपरोंमें, कभी पत्र द्वारा मेरे पास आती है, और दोनों हाल में हमें मौन रहनेको बाध्य होना पडता है ।
उदाहरणके लिये "भानुचन्द्रगणिचरित" को लीजिये । उसके छप जानेकी मेरेको कोई सूचना नहीं मिली - पुस्तकको आंखोंसे देखी भी नहीं । देहलीवाले पनालालजी नामके कोई व्यक्ति (नाम और पता हम भूलते न हों तो ) ने उसके विरुद्ध में कुछ समालोचना पेपरों में निकाली उसका कोई उत्तर न मिलने पर मेरेको सीधा पत्र लिखा कि उस पुस्तकमें कई बातें भ्रमपूर्ण हैं । अवश्य उनके भ्रमका निराकरण करना मेरे शक्तिसाध्य बात न थी, परन्तु जिस पुस्तकको अपनी नजरोंसे भी नहीं देखा उसके विषयमें कुछ भी जवाब देना असम्भव था इसलिये "चुप" रहना पडा । उस पुस्तककी कई कॉपी बादमें मिली ।
पहले जब पुस्तकें छप कर तैयार होती थीं तो सब कापियां यानि १०००/५०० यहीं आ जाती थीं । जब पुस्तकें बहुत इकट्ठी हो गई, रखनेके स्थानका अभाव हुआ तब आपके साथ यही तय हुआ कि हरेक पुस्तककी ५०/५० कापियां यहां रख कर बाकी की सब अहमदाबाद भेज दी जांय । वैसा ही किया गया । अब वे पुस्तकें बक्सों में बन्द अहमदाबादमें रखी होंगी । हमने आपसे गत ७/८ वर्षोंमें कई दफे विनती की होगी कि जिस उद्देश्यको ले कर ये पुस्तकें प्रकाशित की जाती हैं, उसको सफल करनेके लिये, भारतवर्ष में और यूरोपमें इन्हें वितरण कर दी जांय । ताकि विद्वद्वर्ग हमारी और आपकी हयाती में देखें तो सही कि किसने क्या और कैसा काम किया है और कर रहे हैं। हां, आपसे घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाले दस-बीस मित्रोंने इन्हें देखा और प्रशंसा जरूर की; परन्तु मेरा और आपका उद्देश्य क्या इतने ही से सिद्ध हो गया ? आप हमारी प्रसिद्धिके लिये नई नई योजना सोच रहे हैं। क्या भारतवर्ष, यूरोप और अमरिकाकी विख्यात विख्यात लाईब्रेरियों में और विद्वद्वर्गके हाथमें ये पुस्तकें पहुंच जातीं तो कम से कम उस श्रेणिके लोगोंमें, आपके साथ साथ मेरी भी कुछ-न-कुछ ख्याती नहीं होती ? एक विद्वान् और पण्डित के रूपसे नहीं परन्तु ऐसे कामोंमें दिलचस्पी रखनेवाले और इस कामको करनेवाले विद्ववर्गको उत्साहित रखनेवाले के रूपमें तो सही । इस कामके यानि वितरणकार्यको करने के लिये अलग स्टाफकी जरूरत हो तो उसके लिये भी हमने मंजुरी दे दी थी। मगर किसी न किसी कारणवश वह बात अब तक नहीं बनी। आज तो युद्धकी परिस्थिति ऐसी आ खड़ी हुई है कि इरादा करने पर भी नहीं हो सकता। एक दिन ऐसा भी आयेगा कि जिस रोज पं० सुखलालजी, आप और हम इस संसार में न रहेंगे। और परस्परके महाप्रस्थानका अन्तर भी
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f दैवयोगसे आज, यह ता. ७. ७. ४५ का दिन है, जब कि मैं सिंघीजीके पत्र की इन पंक्तियोंकी प्रतिलिपि कर रहा हूं। यह ठीक आज सिंघीजीके स्वर्गमनकी पहली वार्षिक तारीख है । भवनका सब कार्य आज बन्ध रखा गया है और मैं उनके स्मरणका यह अंश बैठा बैठा लिख रहा हूं। सिंघीजीका फोटू मेरे सामने रखा हुआ है जिसकी ओर मैं इन पंक्तियोंको लिखता हुआ बीच-बीच में टकटकी लगा कर कुछ देर तक देखता रहता हूं । मुझे कुछ आभास हो आता है कि सिंघीजीकी यह प्रतिकृति मानों मुझसे कह रही है कि 'देखों, मैंने १९४२ में आपको लिखा न था कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि जिस रोज हम संसारमें न होंगे, सो आज हम संसार में नहीं है । हमें तो संसारसे विदा हुए भी आज
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