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५६ ] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [ तृतीय
ज्यादा नहीं होगा । क्यों कि हम तीनों करीब करीब एक ही उम्र के हैं और स्वास्थ्य भी शिथिलसा हो गया है । पूर्ववत् न तो मनोबल है और न शरीरबल । हम तीनों के अभाव में इन पुस्तकों के समूहका क्या होगा ? आपने शायद नहीं सोचा होगा। क्यों कि आप तो अभी उसके निर्माणकार्य में व्यस्त हैं । हमने सोच लिया है और वह यह कि या तो दीमक के पेटमें या वजनके दरों से बुकसेलरों के पेटमें |
जब हमने सब पुस्तकें अहमदाबाद भेजी थीं उस वक्त जो जो पुस्तकें थीं उनकी ५०/५० कापियां हमने यहां रख ली थीं । बादमें जो पुस्तकें प्रकाशित हुईं उसकी भी ५०/५० कापी मेरे पास आनी चाहिये थीं मगर नहीं आईं । ३ - ३ या ४-४ कापियां आईं उसका नतीजा यह हुआ कि 'देवानन्दमहाकाव्य' और 'तर्कभाषा' की एक भी कापी मेरे पास नहीं है । मुझे ठीक याद नहीं कि ये पुस्तकें मेरे पास आई थी या नहीं ? अगर दो-दो तीन-तीन कापी करके आई भी हों तो किसी किसीको दे देनेमें चली गई होंगी। मेरे पास अब नहीं है । दूसरे पिछले प्रकाशित पुस्तकोंकी एक-एक दो-दो कापी हैं ।
ये सब बातें यों ही प्रसङ्गोपात मनमें आ गईं सो लिख दीं। आप इन बातों पर विशेष ऊहापोह न करें। इन बातोंका मनमें आते हुए भी हमको सबसे ज्यादह संतोष इस बातका है कि काम ठोस, अच्छा, और बहुत अच्छा हो रहा है; और वह भी ऐसे सुयोग्य सज्जनोंके द्वारा कि जो अपने अपने विषय में भारतवर्ष में अपनी जोड नहीं रखते। यह हम दर असल में अपना अहोभाग्य मानते हैं - और इसमें कोई खुशामदकी बात नहीं । आप मेरे आग्रहसे इस कामको करनेके लिये तत्पर हुए और काम चल पड़ा । 'सिंघी ग्रन्थमाला' ने विद्वज्जनोंमें ख्याति प्राप्त की। नहीं तो, न तो मेरे मन पसन्द माफिक इसको करनेवाले ही कोई मिलते और न इस ग्रन्थमालाका जन्म ही होता । अस्तु । हमारा रहना अप्रैल-मई में अजीमगंज में होना ही संभव है । कार्यवश कभी कभी २/४ दिनके लिये कलकत्त आते रहते हैं । आप अपनी इच्छानुसार इधर आवें तो बडी खुशी होगी । मिलने को बहुत अर्सा हो गया है ।
आपके पत्र में और और विषयकी जो चर्चा है मिलने पर ही वें बातें होंगी, पत्रके द्वारा संभव नहीं ।
एक पूरा वर्ष व्यतीत हो गया है ।' हमारा व्यथित मन, इस अप्रिय आभासका चिन्तन करना पसन्द नहीं करता, पर कालके बलके आगे बिचारे दुर्बल मनका क्या जोर । काल कहता है सिंघीजी सचमुच ही आज संसारमें नहीं है । सिंघीजीके इस पत्र में जो भविष्य - कथन किया गया है उसका उनके अपने विषयका कथन तो सिद्ध हो गया है, देखें हमारे विषयका कथन कब सिद्ध होता है और हमारे भी महाप्रस्थानका दिन कब आता है । हमें आभास होता रहता है कि हमारे उस परम आत्मीय बन्धुजनके सूचनके अनुसार, उनके और हमारे महाप्रस्थान के बीच में कोई ज्यादह अन्तर तो नहीं होगा । परन्तु खेद इतना ही है कि सिंघीजी ही हमसे पहले प्रस्थान कर गये और ग्रन्थमालाके जितने ग्रन्थ पिछले १२ वर्षों में प्रकाशित हुए वे देख गये उनसे कहीं अधिक ग्रन्थ, जो हम अपने शरीर की स्वस्थता और आयुष्यकी क्षीणताकी अवगणना करके भी, केवल उन्हींके सन्तोषके खातिर, संपादित कर प्रकाशित करनेका परिश्रम उठा रहे हैं उनको देखनेके लिये कुछ वर्ष क्यों न ठहरे !
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