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वर्ष]
श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य स्मरण [५३ पंडितजीके यहां आनेकी बात तो Middle of March से चल रही है, न मालूम कब आयेंगे।
पू. माजीने प्रणाम लिखवाया है। कुटुंबके और सब भी सविनय प्रणाम कहलाते हैं। हमलोग मजे में हैं आपका कुशल समाचार बीच बीचमें देते रहियेगा। यहां योग्य कार्यसेवा लिखियेगा।"
आपका विनीत-बहादुरसिंह मेरे स्वास्थ्यकी शिथिलता सम्बई में रहनेसे ग्रन्थमालाके कार्य में अधिक प्रगति होने लगी। प्रेस वहीं होनेसे
'अफोंका आना-जाना अधिक शीघ्रतासे होने लगा और इससे ग्रन्थोंकी छपाईका काम पहलेकी अपेक्षा अधिक वेगसे चलने लगा। इधर 'भारतीय विद्या भवन'का कार्य भी यथेष्ट प्रगति कर रहा था । यद्यपि मैंने उसके बाह्य कार्यकी कोई विशिष्ट जिम्मेवारी अपने ऊपर नहीं ली थी, तो भी उसके अन्तरंग काममें तथा ग्रन्थोंके संपादन आदिके काममें, मुझे यथेष्ट योग देना पडता ही था। 'भारतीय विद्या' नामक संशोधनात्मक हिन्दी- गुजराती त्रैमासिक पत्रिकाके संपादनका सब काम प्रारंभसे मुझे ही अपने हाथमें लेना पड़ा था। तदुपरान्त 'भारतीय विद्या ग्रन्थावली' अन्तर्गत कुछ ग्रन्थोंका संपादन भी मैंने शुरू किया था। अधिकारके रूपमें नहीं पर सहकारके रूपमें भवनकी और और सब बातोंका भी मुझे प्रतिदिन खयाल रखना पडता था। __ इसी बीचमें, उदयपुरमें होनेवाले 'राजस्थान साहित्य सम्मेलन'के प्रथम अधिवेशनके अध्यक्षके रूपमें, और पीछेसे उसकी समितियोंमें भाग लेनेके निमित्त, वारंवार राजस्थानमें जाने-आनेके कारण एवं अन्य साहित्यिक अन्वेषणके निमित्त समय समय पर होनेवाले प्रवासादिके कारण, मेरे स्वास्थ्यमें बहुत कुछ शिथिलता दिखलाई देने लगी। बीच-बीचमें कुछ बीमारियां भी सताने लगीं । निरंतर एक जैसा वर्षोंसे बैठे बैठे काम करनेके सबबसे कमर भी बेचारी बेकारसी होने लगी। इससे अब ये सब काम मन ऊपर अपना भारभूत प्रभाव बताने लगे। इधर ज्यों ज्यों ग्रन्थमालाका काम बढता जाता था और उसके ग्रन्थ छप छप कर जमा होते जाते थे त्यों त्यों उनको संभालना, उनकी रक्षाका प्रबन्ध करना, उनकी विक्री आदिकी व्यवस्था करना और उसके आयव्ययका हिसाब रखना इत्यादि प्रकारके कामका बोझ भी मन पर बढता जाता था। सिंधीजीने यह सब जिम्मेवारी, मेरे ही ऊपर छोड रखी थी। वे तो सिर्फ ग्रन्थमालाके कार्य निमित्त जितना भी खर्चा हो उसके भेज देनेके सिवा और ग्रन्थोंकी अधिकाधिक प्रसिद्धि के सिवा और किसी बातमें हस्तक्षेप करना नहीं चाहते थे। इधर उनका भी शरीर शिथिलसा रहा करता था और बीच-बीचमें हृदयकी बीमारी आदिका प्रकोप होता रहता था। इससे ग्रन्थमालाकी भावी व्यवस्थाका खयाल मुझे सदा चिन्तित रखने लगा। जब कभी मेरा स्वास्थ्य कुछ अधिक खराब हो जाता, तो बन्धुवर पण्डितजीका यही आग्रह हुआ करता कि अब किसी तरह प्रन्थमालाके कामको समेट लो और जो ग्रन्थ छप रहे हैं उन्हें पूरे कर आगेका काम बन्ध कर दो। (पण्डितजीका यह आग्रह तो आज भी वैसा ही चालू है।)
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