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अपना योग देते थे और चित्रोंके विषय और परीक्षण आदिमें अपनी प्रवीणताका परिचय कराते थे । इस संग्रहको ठीक करते समय यह भी निर्णय किया गया कि इनमें जो उत्तम और विशिष्ट प्रकारके चित्र हैं, उनके कुछ संग्रह, क्रमशः सिंघी जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशित किये जांय । ऐसा ही विचार शिक्कोंके संग्रहके केटेलॉगके बारे में भी किया गया ।
ग्रन्थमालाके स्टॉकको कलकत्तेसे हटानेका निर्णय
ग्रन्थमालाकी छपी हुई पुस्तकोंका जो स्टॉक अभी तक कलकत्ते में सिंधीजीके वहां 'रखा जाता था उसे अब वहां न रख कर अहमदाबाद भेज देना निश्चित हुआ । कलकत्तेमें उन पुस्तकोंके रखने की कोई अच्छी व्यवस्था न थी और वहां रखनेका कोई अर्थ भी न था । पुस्तकोंके विक्रय वगैरहकी सब व्यवस्था करना मेरे ही जिम्मे थी इसलिये सिंघीजीकी इच्छा हुई कि जहां मेरा रहना हो और जहां पर मैं सरलसाके साथ उनकी व्यवस्था कर सकूं, वहीं वह स्टॉक रखा जाय । पर इसके साथ ही मेरे आगे यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि - अहमदाबादमें भी इन सब पुस्तकों को कहां पर रखा जाय । मेरा रहनेका जो स्थान है वह छोटासा है और अपनी आवश्य
ताके अनुरूप है । ग्रन्थमाला के ग्रन्थ ज्यों ज्यों छपते जांयगें त्यों त्यों उनका स्टॉक बढता जायगा । उसके लिये पर्याप्त जगह कैसे प्राप्त करनी होगी ? इसके समाधानके लिये सिंधीजीने कहा - 'आप ५-७ हजार रूपये खर्च कर कोई दो-एक बड़े कमरे अपने मकान में और नये बना लीजिये । क्यों कि जब हमें ग्रन्थमालाका काम केवल चालू ही नहीं रखना है पर इससे भी अधिक बढाना है, तो फिर इसके रखनेकी व्यवस्था आदि तो अवश्य करना ही होगा ।' कितनी उदारता, कितनी विशाल दृष्टि और कितना साहित्यानुराग ! सिंघीजीका यह कथन सुन कर कुछ देर तक तो मैं मौन रहा और फिर बोला- 'अभी फिलहाल इस स्टॉकके रखने जितनी जगह तो मकान में हैं। आगे स्टॉकके बढ़ने पर देखा जायगा ।'
बम्बई में नवीन स्थापित 'भारतीय विद्या भवन' के विषय में भी बहुतसी बातें हुई और उसमें मेरा सहयोग किस प्रकारका है और वह सहयोग 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला' के कार्य में बाधक न हो कर उलटा किस तरह साधक हो सकता है इस बारे में जो मेरी कल्पना थी वह उनको दी गई । क्यों कि सिंघीजीको भय था कि कहीं मैं इस नूतन संस्थाके कार्यभारमें फंस कर ग्रन्थमालाके कार्य में मन्दगति न हो जाऊं । उन्होंने मेरी कल्पनाका प्रोत्साहन किया और मैं सन्तुष्ट हो कर उनसे बिदा हुआ ।
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इसके बाद ग्रन्थमालाकी दो-एक पुस्तकें और तैयार हुईं तो उनके पुठ्ठेपर जिस प्रकारका पीला- केशरिया रंगका कागज लगाना, प्रारंभ ही से निश्चित किया था वह युद्धके कारण बाजार में मिलना कठिन हो गया । तब मैंने अगर उसीके रंगढंगका मिलता-जुलता कोई कागज न मिले तो फिर दूसरी जातिका कागज लगाना ठीक होगा या नहीं इस विषय में उनसे पत्र लिख कर पूछा । क्यों कि उनका इस विषय में बहुत ध्यान रहता था और पुस्तकोंके गेट अप इत्यादिके बारे में वे खास दिललेते थे, यह मैंने ऊपर पहले ही सूचित किया है। इसके उत्तर में ता. ३.३.३९ का लिखा हुआ उनका नीचे मुआफिक पत्र मिला ।
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